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5.12.25

दुनिया में चीन का प्रदूषण घटा, भारत का चिंताजनक

डॉ. चेतन आनंद-

दुनिया भर में वायु प्रदूषण अब केवल पर्यावरण से जुड़ा मुद्दा नहीं रहा, बल्कि यह सीधे लोगों की सेहत, अर्थव्यवस्था और जीवन प्रत्याशा को प्रभावित करने वाला बड़ा वैश्विक संकट बन चुका है। अनेक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टें बताती हैं कि एशिया, विशेषकर दक्षिण एशिया, इस समय प्रदूषण के सबसे गंभीर प्रभाव झेल रहा है। इसी पृष्ठभूमि में जब हम “दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों” की सूची पर नज़र डालते हैं, तो भारत की स्थिति बेहद चिंताजनक दिखाई देती है। हाल के वर्षों में भारत के कई शहर लगातार दुनिया की शीर्ष 10 या शीर्ष 20 प्रदूषित शहरों की सूची में शामिल होते रहे हैं। यह स्थिति न सिर्फ पर्यावरणीय चुनौती का संकेत है, बल्कि यह जन स्वास्थ्य के लिए आज की सबसे बड़ी चेतावनी भी है।

वैश्विक रिपोर्टें और भारत-अंतरराष्ट्रीय संगठनों, जैसे आईक्यू एयर की वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपोर्ट, डब्ल्यूएचओ की वायु गुणवत्ता सूचियाँ और कई देश-आधारित शोध, लगातार इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि दुनिया के अत्यधिक प्रदूषित शहर एशिया में केंद्रित हैं। इनमें सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन बताए जाते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों के आँकड़े यह भी स्पष्ट करते हैं कि भारत के शहरों ने इस सूची में सबसे ज्यादा स्थानों पर कब्ज़ा किया है। ताज़ा उपलब्ध रिपोर्ट (2024) में यह एक महत्वपूर्ण तथ्य सामने आया कि दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 13 भारत के हैं। यह आँकड़ा अपने आपमें यह दर्शाता है कि वायु प्रदूषण का संकट अब भारत के लिए एक व्यापक भौगोलिक समस्या है, न कि केवल कुछ महानगरों तक सीमित। वैश्विक सूची में शामिल भारतीय शहरों में बड़े महानगरों के साथ-साथ कई मध्यम और छोटे शहर भी शामिल हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि प्रदूषण का दायरा तेजी से फैल रहा है और यह देश के कई हिस्सों को प्रभावित कर रहा है। कई रिपोर्टों में गाजियाबाद, नोएडा, दिल्ली, गुरुग्राम, फरीदाबाद, मुजफ्फरनगर, बेगूसराय और अन्य उत्तर भारतीय शहरों को उच्चतम प्रदूषण स्तर वाले शहरों में रखा गया है।

शीर्ष 10 शहरों में भारत की छवि-जब केवल शीर्ष 10 की बात की जाती है, तो स्थिति और गंभीर दिखाई देती है। 2024 की रिपोर्टों ने एक बार फिर दिखाया कि इनमें से कई शहर भारत के थे। दिल्ली, जो भारत की राजधानी है, दुनिया की “सबसे प्रदूषित राजधानी” के रूप में कई बार रैंक की गई है। कई वर्षों में पीएम 2.5 का औसत स्तर दिल्ली को दुनिया के शीर्ष 10 प्रदूषित शहरों की श्रेणी में बनाए रखने के लिए पर्याप्त रहा है। हालांकि कुछ वर्षों में रीयल-टाइम एक्यूआई या कुछ विशिष्ट मौसमीय परिस्थितियों के कारण अन्य शहर इसमें ऊपर या नीचे आते हैं, लेकिन समग्र स्थिति यही बताती है कि भारत के कई शहर अक्सर इस शीर्ष वर्ग में बने रहते हैं। ये केवल उत्तर भारत तक सीमित नहीं, बल्कि मध्य और पूर्वी भारत के हिस्सों में भी व्यापक स्तर पर देखे जाने लगे हैं।

क्यों चिंता का विषय है शीर्ष सूची में भारत का होना-विश्व स्वास्थ्य संगठनों के अनुसार, वायु प्रदूषण दुनिया में मृत्यु और बीमारियों का एक प्रमुख कारक बन चुका है। जब कोई शहर दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में शामिल होता है, तो इसका अर्थ होता है कि वहाँ पीएम 2.5 जैसे प्रदूषक सुरक्षित सीमा से कई गुना अधिक हैं। लंबे समय में इसका सीधा असर लोगों की सेहत, उत्पादकता, मानसिक स्वास्थ्य और बच्चों के विकास पर पड़ता है। भारत के लिए चिंता की बात यह है कि यहाँ सिर्फ एक या दो शहर नहीं, बल्कि दर्जनों शहर इस सूची में शामिल हैं। यह स्थिति बताती है कि समस्या स्थानीय नहीं, बल्कि क्षेत्रीय स्तर की है। उदाहरण के लिए एनसीआर में स्थित दिल्ली, नोएडा, गुरुग्राम, गाज़ियाबाद और फरीदाबाद, ये सभी शहर अलग-अलग प्रशासनिक इकाइयाँ हैं, लेकिन सभी में हवा की गुणवत्ता लगभग एक जैसे खराब स्तर पर दर्ज होती है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि हवा का बहाव और वातावरणीय परिस्थितियाँ प्रदूषण को व्यापक क्षेत्र में फैलाती हैं।

भारत की जनसंख्या और भौगोलिक विस्तार का प्रभाव-भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश है। इतने बड़े जनसमूह का बड़े शहरों में एकत्र होना किसी भी प्रदूषण संबंधित समस्या को और गंभीर बना देता है। जब करोड़ों लोग ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जहाँ हवा सुरक्षित सीमा से कई गुना खराब हो, तो यह स्वास्थ्य प्रणाली, आर्थिक उत्पादकता और जीवन प्रत्याशा पर गहरा प्रभाव डालता है। दुनिया के शीर्ष प्रदूषित शहरों में बड़ी संख्या में भारत के शहरों का शामिल होना यह दर्शाता है कि देश को व्यापक स्तर पर वायु प्रदूषण के जोखिमों से जूझना पड़ रहा है। कई अध्ययन कहते हैं कि भारत के बड़े शहरों में रहने वाले लोगों की आयु 5 से 10 वर्ष तक कम हो सकती है, यदि वायु गुणवत्ता में सुधार न किया जाए।

भारत की स्थिति वैश्विक तुलना में कितनी गंभीर-दुनिया में कई विकासशील देशों को प्रदूषण की समस्या है, लेकिन भारत की स्थिति विशिष्ट इसलिए है क्योंकि-

1. भारत सूची में बार-बार और बहुत बड़े पैमाने पर आता है।
2. यहाँ केवल 1-2 नहीं, बल्कि 10, 12, 15 या कभी-कभी उससे भी अधिक शहर शीर्ष सूची में दर्ज होते हैं।
3. प्रदूषण केवल शहरी नहीं, बल्कि क्षेत्रीय स्तर का संकट बन चुका है।
4. दुनिया के अन्य क्षेत्रों की तुलना में भारत के शहरों में पीएम 2.5 स्तर कई महीनों तक अत्यधिक ऊँचा रहता है।

सबसे प्रदूषित देशों की की सूची
1.चाड
2.बांग्लादेश
3.पाकिस्तान
4.डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो
5.भारत
6.ताजिकिस्तान
7.नेपाल
8.बहरीन, कुवैत

साउथ एशिया के भारत, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश पिछले 25 सालों से लगातार विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित देश बने हुए हैं। चीन ने वर्ष 2015-25 में अपने प्रदूषण को आधा कर दिया है। जबकि अफ्रीका के देशों का प्रदूषण आंकड़ों में अब अधिक दिखने लगा है। क्योंकि इनकी मॉनीटरिंग बढ़ी है। 

यह स्थिति साफ़ संकेत देती है कि भारत “वैश्विक वायु प्रदूषण संकट” का केंद्र बन चुका है। दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में भारत की स्थिति चिंताजनक और विचारणीय है। शीर्ष 10 और शीर्ष 20 की सूची में भारत के इतने शहरों का होना सूचित करता है कि देश की हवा से जुड़ा संकट केवल स्थानीय पर्यावरणीय मुद्दा नहीं, बल्कि जन स्वास्थ्य के लिए व्यापक खतरा बन चुका है। दुनिया के अत्यधिक प्रदूषित शहरों में शामिल होना सिर्फ एक रैंकिंग नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की सांसों पर मंडराता हुआ वास्तविक खतरा है। भारत के लिए यह समय गंभीर आत्मचिंतन और दीर्घकालिक रणनीति की मांग करता है, ताकि आने वाली पीढ़ियों को स्वच्छ हवा मिल सके और दुनिया की प्रदूषण सूची में भारत का स्थान किसी अन्य दिशा में बदल सके।

लेखक
डॉ. चेतन आनंद
(कवि-पत्रकार)

26.10.25

शेरशाह सूरी की विनम्रता

अनेहस शाश्वत-

भारत के मध्यकालीन इतिहास में शेरशाह सूरी का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है । अपने समय से बहुत आगे की सोच वाले इस बादशाह ने हालांकि कुल पांच साल शासन किया लेकिन उनकी उपलब्धियां असीम हैं । खेती में खसरा खतौनी हो या फिर रुपए का चलन या फिर उस ज़माने में हाई वे की जरूरत महसूस कर शेरशाह सूरी मार्ग बनवाना ये सब उन्हीं की देन हैं । इन्हीं शेरशाह के ज़माने का किस्सा है प्रसिद्ध सूफी संत मालिक मुहम्मद जायसी के साथ खुद बादशाह की दिलचस्प मुलाकात ।

सूफी संत होने के नाते जायसी खासे प्रसिद्ध थे । बादशाह ने उन्हें देखा नहीं था लेकिन प्रसिद्ध संत होने के नाते जायसी की बाबत एक सौम्य और शालीन व्यक्तित्व की कल्पना शेरशाह के मस्तिष्क में रही होगी लेकिन इस कल्पना के ठीक विपरीत जायसी टेढ़े मेढे काले कलूटे अष्टावक्र थे । बादशाह , जायसी से मिलने को बहुत उत्सुक थे । शेरशाह के बहुत बुलाने पर जायसी बादशाह से मिलने दरबार में पहुंचे । सोची हुई छवि के ठीक विपरीत सामने एक निहायत कुरूप व्यक्ति को पाकर शेरशाह सूरी बेतहाशा हंस पड़े ।

लेकिन संत ने बिल्कुल भी विचलित नहीं होते हुए बादशाह से पूछा मों पे हंसे सि के कोहरहिं यानी मुझ पे हंसे या उस कुम्हार पर जिसने मुझे बनाया । अपने समय से बहुत आगे की सोच वाला कुशाग्र बादशाह , जायसी के इस सवाल के मर्म को समझ गया और सिंहासन से नीचे उतर कर विनम्रता से सूफी संत का इस्तकबाल किया । जब से दुनिया बनी है तब से सामान्य मानव से लेकर ज्ञानीजन सब जानते हैं दुनिया अनिश्चित है । इसका नियंता कोई और है इसीलिए संत तुलसीदास ने कहा भी है हानि लाभ जीवन मरण जस अपजस विधि हाथ ।

जो भी व्यक्ति ऊंचाई पर बैठा है और यह ऊंचाई उसने सदप्रयास और विवेक से अर्जित की है वो इस सच्चाई को जानता है । जीवन के तमाम उतार चढ़ाव झेल कर बादशाह बने शेरशाह सूरी इसीलिए विनम्र थे । और इसी विनम्रता और दूसरे सद्गुणों ने ही शेरशाह सूरी को कालजई बना दिया । वरना उस कालखंड के कितने बादशाह आज भी इस तरह जनचरचा के नायक हैं ? लेकिन तुलसी दास ने ये भी कहा है कि प्रभुता पाय काहि मद नाही यानी प्रभुता अधिकांश को दंभी बना ही देती है ।

सच्चाई यही है कि अनादि काल से अधिकांश प्रभु दंभी ही हुए हैं और आगे भी होंगे । इसको रोकना शायद परमात्मा के बस में भी ना होगा । यही वजह है कि अधिकांश लोग शक्ति मिलते ही खुद को सामान्य लोगों से श्रेष्ठ मान का आचरण करने लगते हैं । वो मान लेते हैं कि वो नियम कानून से परे है । वे इनको बनाने वाले हैं ना कि इनका पालन करने वाले । यही दंभ प्रभु जनो के पतन का कारण बनता है और प्रभुता जाने के बाद कोई इनका नाम लेवा भी नहीं बचता । सदगुणी विनम्र व्यक्ति ही याद किया जाता है लेकिन सत्ता के दंभ में अधिकांश को यह याद नहीं रहता ।

फिलहाल के सत्ताधारियों का नज़रिया भी कुछ अलग नहीं है । उनका आचरण कई बार उनके प्रभुता मद की याद दिलाता है । प्रभुता मद की एक बड़ी खासियत काल की गति को भूलना भी होती है । वरना इसी लखनऊ में निगाह दौड़ाएं तमाम ऐसे मिल जाएंगे जो प्रभुता जाने के बाद दो कौड़ी के हो गए । वर्तमान सत्ताधारियों को भी ये दिखेंगे जरूर लेकिन तब जब वे भी ऐसे ही हो जाएंगे । दुखद ये भी है कि चाह कर भी संसार के इस सनातन सत्य को बदलना संभव नहीं ।

19.10.25

NCW ने सनबीम वीमेंस कॉलेज वरुणा को शिकायतकर्ता संगीता प्रजापति को सात दिनों के अंदर मातृत्व लाभ मुहैया कराने का दिया आदेश

कहा- मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 के अनुसार मातृत्व लाभ प्रत्येक शैक्षणिक संस्थान पर लागू होता है, क्योंकि यह प्रत्येक महिला का मूलाधिकार है।

नई दिल्ली/वाराणसी। कानून के तहत कामकाजी महिलाओं को वेतनयुक्त छह महीने का मातृत्व अवकाश मुहैया नहीं कराने के मामले में सनबीम समूह को राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) से झटका लगा है। राष्ट्रीय महिला आयोग ने सनबीम समूह के वाराणसी स्थित सनबीम वीमेंस कॉलेज वरुणा को सात दिनों के अंदर शिकायतकर्ता को मातृत्व लाभ देने का आदेश दिया है।

आयोग की सदस्य एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. अर्चना मजूमदार ने बुधवार को जारी अपने आदेश में लिखा है, “मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 के अनुसार मातृत्व लाभ प्रत्येक शैक्षणिक संस्थान में लागू होता है, क्योंकि यह प्रत्येक महिला का एक मौलिक अधिकार है।”

आयोग के इस आदेश के बाद उत्तर प्रदेश के निजी शैक्षणिक संस्थानों में कार्यरत महिलाओं के लिए वेतनयुक्त छह महीने के मातृत्व अवकाश का रास्ता खुल गया है। संभवतः यह राज्य का पहला मामला है जिसमें किसी आयोग या न्यायालय ने किसी निजी शैक्षणिक संस्था में कार्यरत महिला कर्मचारी को छह महीने का मातृत्व लाभ प्रदान करने का आदेश दिया है। प्रदेश में संचालित निजी शैक्षणिक संस्थान अपने यहां कार्यरत शिक्षकाओं एवं शिक्षणेत्तर महिला कर्मचारियों को वेतनयुक्त छह महीने का मातृत्व अवकाश नहीं देते हैं। सनबीम समूह अपने यहां कार्यरत और कर्मचारी राज्य बीमा निगम के प्रावधानों से आच्छादित महिला कर्मचारियों को भी वेतनयुक्त छह महीने का मातृत्व लाभ मुहैया नहीं कराता है।

बता दें कि सनबीम वीमेन्स कॉलेज वरुणा में 15 दिसम्बर 2021 से पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में कार्यरत संगीता प्रजापति ने पिछले साल 2 अगस्त को एक बच्चे को जन्म दिया था। उन्होंने उत्तर प्रदेश शासन के शासनादेशों और यूजीसी रेगुलेशन-2018 समेत मातृत्व लाभ कानून में उल्लिखित प्रावधानों के तहत महाविद्यालय प्रशासन से वेतनयुक्त छह महीने का मातृत्व अवकाश मांगा था लेकिन उसने उनके अनुरोध को यह कहकर खारिज कर दिया कि वह एक स्ववित्तपोषित निजी संस्थान है और उस पर मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 के प्रावधान लागू नहीं होते हैं। साथ ही उसने संगीता प्रजापति को कानूनी प्रावधानों में उल्लिखित छह महीने के मातृत्व अवकाश के बाद नौकरी पर वापस लेने से भी मना कर दिया था।

संगीता प्रजापति ने महाविद्यालय प्रबंधन के आदेश को पहले क्षेत्रीय श्रम प्रवर्तन अधिकारी सुनील कुमार द्विवेदी और अपर श्रमायुक्त/उप श्रमायुक्त डॉ. धर्मेंद्र कुमार सिंह के समक्ष चुनौती दी। उन्होंने माना कि सनबीम वीमेन्स कॉलेज वरुणा पर मातृत्व लाभ कानून के प्रावधान लागू होते हैं। क्षेत्रीय श्रम प्रवर्तन अधिकारी सुनील कुमार द्विवेदी ने गत 7 फरवरी को लिखित रूप से सनबीम वीमेन्स कॉलेज वरुणा को संगीता प्रजापति के मातृत्व हित लाभ की देयता सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था लेकिन महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. राजीव सिंह और प्रशासक डॉ. शालिनी सिंह समेत उसके प्रबंधन तंत्र ने पीड़िता को मातृत्व लाभ मुहैया नहीं कराया और ना ही उसे नौकरी पर वापस लिया।

पीड़िता ने इसकी शिकायत उत्तर प्रदेश शासन के श्रमायुक्त मार्कण्डेय शाही, श्रम मंत्री डॉ. अनिल राजभर, जिलाधिकारी सत्येंद्र कुमार, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ की कुल-सचिव डॉ. सुनीता पाण्डेय, कुलपति ए.के. त्यागी, क्षेत्रीय उच्च शिक्षाधिकारी डॉ. ज्ञान प्रकाश वर्मा से भी लिखित रूप में की लेकिन महीनों बीत जाने के बाद भी इनमें से किसी ने भी कोई कार्रवाई नहीं की और ना ही पीड़िता की शिकायत के संदर्भ में उसे कोई सूचना देना मुनासिब समझा।

उत्तर प्रदेश सरकार की प्रशासनिक व्यवस्था से निराश संगीता प्रजापति ने गत 6 अगस्त को राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्य डॉ. अर्चना मजूमदार से न्याय की गुहार लगाई। उनकी पहल पर आयोग ने 8 अगस्त को उच्च शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव महेंद्र प्रसाद अग्रवाल को नोटिस जारी कर पूरे प्रकरण पर कार्रवाई रिपोर्ट (एटीआर) तलब की लेकिन दो महीना बीत जाने के बाद भी उन्होंने आयोग या शिकायतकर्ता को किसी कार्रवाई की कोई सूचना दी। आयोग की सदस्य डॉ. अर्चना मजूमदार ने गत 7 अगस्त को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए इस मामले पर सुनवाई की। सुनवाई में शिकायतकर्ता संगीता प्रजापति शामिल हुईं। वहीं, सनबीम वीमेन्स कॉलेज वरुणा की ओर से प्राचार्य डॉ. राजीव सिंह, प्रशासक डॉ. शालिनी सिंह और महाविद्यालय के लीगल हेड एवं अधिवक्ता देवेश त्रिपाठी शामिल हुए।

आयोग की सुनवाई के बारे में पूछे जाने पर पीड़िता संगीता प्रजापति ने कहा, “मैं राष्ट्रीय महिला आयोग की सुनवाई से बहुत खुश हूं लेकिन नौकरी पर वापसी से संबंधित कोई सूचना नहीं होने से थोड़ी निराशा भी है। हालांकि अभी आयोग का अंतिम फैसला आना बाकी है, इसलिए इस पर विचार होने की पूरी संभावना है। मैं माननीय डॉ. अर्चना मजूमदार मैम की आभारी हूं कि उन्होंने मेरे अनुरोध का संज्ञान लेकर इस पर सुनवाई की और न्याय के पक्ष में खड़ी हुईं। मुझे पूरा विश्वास है कि राष्ट्रीय महिला आयोग से मुझे न्याय मिलेगा। मैं उन सभी लोगों को धन्यवाद देना चाहती हूं जो न्याय की इस लड़ाई में मेरा सहयोग कर रहे हैं। यह केवल मेरी लड़ाई नहीं है। यह उन सभी कामकाजी महिलाओं की लड़ाई है जिन्हें मातृत्व लाभ के उनके मूलाधिकार से वंचित किया जा रहा है।”

2.9.25

गरीब धनखड़ की पेंशन याचना

केपी सिंह-

जगदीप धनखड़ को खुशकिस्मत कहें या बदकिस्मत लेकिन वे जितने पदों पर रहे उनकी कार्यप्रणाली पर मीडिया की सुर्खियां बनती रहीं। धनखड़ साहब जब राज्यपाल थे तभी से उनके साथ यह संयोग शुरू हो गया था। संविधान की आदर्श परिकल्पना में राज्यपाल की भूमिका राज्य सरकार के साथ सामंजस्य बनाकर विधि-विधान के मुताबिक सरकार का संचालन सुनिश्चित करना होता है लेकिन भाजपा के अन्य राज्यपालों की तरह ही उन्होंने अपने पद को चुनी हुई सरकार की प्रतिद्वंदी संस्था के रूप में स्थापित किया। एक समय उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार को नियंत्रित करने के लिए सोनिया गांधी ने आईबी के रिटायर्ड अधिकारी को राज्यपाल बनवाकर लखनऊ भेज दिया। उन्हें कांग्रेस के नेता ज्ञापन देने आते थे और वे उस पर सरकार से पत्र भेजकर जबाव-तलब कर लिया करते थे। लेकिन उनको अपनी हद पता थी।

 चंबल के डकैत सरगनाओं को सरकार के प्रोत्साहन पर आधारित आरोप पत्र किस्म का ज्ञापन कांग्रेसियों ने दिया तो पेशबंदी, केस तैयार करने आदि पुलिसिया फन के माहिर पूर्व आईबी राज्यपाल ने मुलायम सरकार के अधिकारियों को बहुत चाकचौबंद पत्र तो भेज दिया जिससे मुलायम सिंह को सांसत महसूस करनी पड़ी। लेकिन यह नही हुआ कि वे राजभवन से निकल पड़ते और खुद डकैत पीड़ित जिलों को जायजा लेने लगते। जगदीप धनखड़ को राज्यपाल पद पर रहते हुए ऐसा कोई लिहाज नही हुआ। पश्चिम बंगाल में कई बार सनसनीखेज वारदात की सूचना पर उन्हें मौके पर जाकर खड़ा होते और राज्य सरकार के खिलाफ बयानबाजी करते देखा गया। इसके कारण तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की गालियां भी उन्होंने खूब सुनी।

ऐसा नही है कि जगदीप धनखड़ अल्पज्ञानी हों। वे सुप्रीम कोर्ट के वकील रहे हैं और उन्हें संविधान, कानून और परंपराओं का बहुत अच्छा ज्ञान है। कई बार ज्ञानी ऐसा काम कर जाते हैं जिससे लोगों को कहना पड़ता है कि दुष्टता से भरे ज्ञानी की बजाय अल्पज्ञानी ज्यादा अच्छा है। विद्वानों के कारण ही हमारे देश में कई सैकड़ा वर्षों तक भयानक सामाजिक व्यवस्था को थोपे रहना संभव हुआ। ऐसी सामाजिक व्यवस्था का गठन भी अपने आप में कम चमत्कार नही था। अगर दुष्ट विद्वता न होती तो ऐसी सामाजिक व्यवस्था को आबादी के बहुतायत से स्वीकृत कराना संभव हो ही नही सकता था जबकि बहुतायत के लिए वह व्यवस्था बहुत दारुण दुखदायी थी। जगदीप धनखड़ राज्यपाल पद की गरिमा से भलीभांति विज्ञ थे लेकिन विद्वता के कारण वाचालपन में उनका जोड़ नही था। मर्यादा अतिलंघन के हर मामले का औचित्य सिद्ध करने की कला उनके पास थी।

उनकी इस प्रतिभा के मददेनजर ही उनको देश के 14वे उपराष्ट्रपति के रूप में पदासीन कराया गया था। यहां भी उन्होंने अपनी डयूटी बदस्तूर निभाई। संविधान बदलने की सरकार की इच्छा के लिए माहौल बनाने की शुरूआत उन्होंने यह कह कर की कि सुप्रीम कोर्ट ने कोई भी सीमा तय की हो लेकिन संविधान में संसद सब कुछ बदल सकती है। सब कुछ बदले जाने का अर्थ यही तो है कि संसद चाहे तो वर्तमान संविधान को रदद करके नया संविधान मंजूर करा ले। एक भी बार धनखड़ के इस प्रतिपादन का प्रतिवाद न करने वाली मोदी सरकार यह कह रही है कि विपक्ष ने संविधान के मामले में भ्रम फैलाया वरना बाबा साहब के रचे गये संविधान को बचाये रखने में हम तो अपनी जान भी कुर्बान करने में पीछे न हटने वालों में हैं। संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत प्राप्त शक्तियों का उपयोग करते हुए उच्चतम न्यायालय ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए विधायी संस्था द्वारा पारित विधेयकों पर फैसले के संबंध में समय सीमा तय कर दी थी। इस पर जगदीप धनखड़ इस कदर फट पड़ थे कि सारी सीमाएं पार हो गई थीं। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लोकतंत्र पर मिसाइल दागना तक कह दिया था। लेकिन धनखड़ साहब सगे किसी के नही थे। सरकार के लिए भी अपने अंतःपुर में वे षणयंत्र रच रहे थे। उन्हें यह ख्याल नही रहा कि प्रधानमंत्री मोदी का खुफिया तंत्र कितना मजबूत है। उन्हें भनक तक नही लग पाई कि वे रडार पर है। उन्होंने कार्यकाल पूरा करने के बाद ही पद छोड़ने का एलान दो दिन पहले किया था। यहां तक कि वे उस दिन भी इस बात से बेखबर थे कि उनको बेआबरू कर निकाले जाने का फैसला हो गया है। अपने कक्ष में जब उन्होंने सत्तापक्ष और विपक्ष को आमंत्रित किया तो जेपी नडडा और किरन रिजजू सत्तापक्ष के दोनों प्रतिनिधि उनकी बैठक में नही पहुंचे। तब भी वे स्थिति को नही भांप पाये। उन्होंने इसे मान दिखाने का साधारण उपक्रम समझा और अगले दिन की सुबह फिर से बैठक तय कर दी। पर उसी दिन उनको सख्त संदेश मिला और दौड़े-दौड़े इस्तीफा लेकर उन्हें राष्ट्रपति भवन पहुंचना पड़ा।

इस दौरान उनकी घिघ्घी बंध गई। एक-दो दिन के लिए नहीं गत 21 जुलाई को उन्होंने इस्तीफा सौंपा था और इसके बाद आज तक उनका बोल बंद है। वे अब दृश्य में आये हैं तो इसलिए कि उन्हें पूर्व विधायक की अपनी बंद पेंशन वापस चाहिए। धनखड़ 1993 से 1998 तक राजस्थान के अजमेर जिले के किशनगढ़ क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर विधायक रहे थे। इसकी पेंशन उन्हें मिलती थी जो राज्यपाल बनने के बाद बंद हो गयी थी। अब वे इस पेंशन के हकदार बन गये हैं। वे सांसद भी रह चुके हैं। उन्हें पूर्व सांसद की पेंशन भी अनुमन्य है। पूर्व उपराष्ट्रपति के तौर पर भी उनके लिए 2 लाख रुपये महीने पेंशन की व्यवस्था है। अभी उन्होंने सेंट्रल विस्टा में बना उपराष्ट्रपति आवास नही छोड़ा है। लेकिन इस बंगले से निकलने के बाद भी वे आवासहीन नही होगें। लुटियंस जोन में उनको ए-टाइप बंगला मिलेगा जिसके बिजली पानी का बिल सरकार देगी। बंगला सरकारी खर्च पर ही फर्नीचर आदि से सुसज्जित होगा। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट की प्रेक्टिस से भी उन्होंने काफी कमाया होगा जिसकी अच्छी-खासी सेविंग उनके पास होनी चाहिए। जिम्मेदारी के नाम पर उनकी पत्नी के अलावा एक बेटी है जिसका विवाह हो चुका है। फिर भी धनखड़ साहब भूखों मरे जा रहे हैं। उन्हें पूर्व विधायकी की 42-45 हजार की पेंशन और चाहिए तब उनकी पूर्ति होगी। 

जगदीप धनखड़ ने संस्कार बोध होता तो उप राष्ट्रपति पद से हटाये जाने में उन्हें जिस तरह की जलालत महसूस करायी गई उसकी भरपाई के लिए विधानसभा की पेंशन मांगकर क्षुद्रपन का परिचय न देते। यह कानूनी रूप से भले ही गलत न हो लेकिन नैतिक रूप से ऐसा आचरण शर्मनाक है। यह अकेले धनखड़ की बात नही है। अमर सिंह, अंबानी, जयप्रदा आदि कितने ही ऐसे लोग संसद में पहुंचे जिनके पास दौलत और आमदनी का पारावार नही था। पर उन्होंने भी सरकारी बंगले का मोह नही त्यागा। अमर सिंह और जयप्रदा ने तो अपने स्तर का बंगला रिनोवेट कराने के लिए केंद्रीय लोक निर्माण विभाग से जबर्दस्ती कर डाली थी। चूंकि उस समय मनमोहन सिंह की कमजोर सरकार थी इसलिए हर किसी से ब्लैकमेल होने के लिए तत्पर रहती थी। यह हमारे चरित्र के घटियापन का नमूना है जो कितने भी सुखी समृद्ध होकर हम मुफ्तखोरी नही छोड़ना चाहते। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुरूआत में एक अच्छी पहल की थी। लोगों से इस बात की अपील करने की कि जो सक्षम हैं वे गैस सिलेण्डर की सब्सिडी खुद से छोड़ दें। उच्च पदों पर बैठे लोग अगर अपील करें तो उसका असर होता है। मोदी की अपील का असर हुआ था क्योंकि उस समय लोगों के मन में था कि वे त्यागी, देश और समाज के लिए समर्पित नेता हैं। लेकिन आज मोदी उन लोगों से जिनके पास सारी सुख-सुविधाएं हैं साथ ही गरीबी वाला राशनकार्ड भी है क्यों यह अपील नही कर पा रहे कि आप अपना राशनकार्ड जमा करके मुफ्त राशन लेना बंद करें। सुरुचि एक अलग चीज है और विलासिता अलग। सुरुचि बोध होना चाहिए और उसकी छाप आप सादगी में भी छोड़ सकते हो। पर मोदी जी के चश्में, घड़ी, पहनावा आदि को लेकर जो चर्चाएं आज व्याप्त हैं उसके चलते उनके जीवन विलास की ऐसी धारणाएं निर्मित हो गई हैं जिनके रहते त्याग की प्रतिमूर्ति की उनकी छवि बुरी तरह दरकी है। शायद इसका अपराधबोध स्वयं हमारे प्रधानमंत्री को खुद भी है। इसलिए अब वे कोई ऐसी अपील करने का नैतिक साहस नही कर पा रहे हैं जिससे लोगों को चारित्रिक उत्थान की प्रेरणा मिल सके।

बहरहाल जगदीप धनखड़ की पेंशन याचना से जनमानस को बहुत वितृष्णा हुई है। जरूरत इस बात की है कि ऐसे प्रसंगों के बरक्स लोगों द्वारा महानुभावों की फजीहत में कोई कसर नही रखी जानी चाहिए तांकि उनका जमीर जगाया जा सके। महाजन जिस पंथ पर चलते हैं लोग उसी रास्ते का अनुसरण करते हैं। इसलिए ऐसी प्रतिक्रिया सवर्था अपेक्षित हैं।

1.9.25

संभल फाइल 1978- किसे बेनकाब कर रहे हैं योगी!

केपी सिंह-

उत्तर प्रदेश के समाचारों में संभल सुर्खियों में है। संभल की शाही जामा मस्जिद के नीचे बाबर द्वारा गिराया गया पृथ्वीराज चौहान निर्मित हरिहर मंदिर होने के दावे को लेकर स्थानीय सिविल कोर्ट में याचिका दायर की गई थी। सिविल कोर्ट ने इसमें सर्वेक्षण के आदेश जारी कर दिये। 19 नवम्बर को सर्वे के लिए पहुंची टीम के साथ शुरू हुआ तनाव जुमे की नमाज के दिन तक गंभीर हो गया। 24 नवम्बर को दंगा भड़क गया जिसमें पांच मुसलमान मारे गये और दर्जनों पुलिसकर्मी घायल हो गये। रिटायर्ड जज डीके अरोड़ा की अध्यक्षता में मुख्यमंत्री ने संभल की पूरी स्थिति के अध्ययन के लिए तीन सदस्यीय न्यायिक समिति गठित की। जिसमें आईएएस अमित मोहन प्रसाद और रिटायर्ड डीजीपी एके जैन को सदस्य के रूप में शामिल किया गया।

अमित मोहन प्रसाद वही हैं जो कोरोना के समय स्वास्थ्य विभाग की कमान संभाले हुए थे। विभाग के मंत्री सहित सत्तारूढ़ खेमे के कई नेताओं ने उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये थे लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उन पर वरदहस्त रख छोड़ा था। आखिर में केंद्र ने सीधे उनके खिलाफ जांच के आदेश जारी कर दिये तब उनका विभाग बदला गया। रिटायरमेंट के बाद भी वे योगी के चहेते बने हुए हैं।

योगी की अपनी अलग कार्य शैली है। वे एक कॉकस की सलाह को मानकर सरकार चलाते हैं। उनके खास अधिकारी चाहे वे अवनीश अवस्थी हों या अमित मोहन प्रसाद, का प्रशासन में दखल सेवा निवृत्त होने के बाद भी कायम बना हुआ है।

वैसे तो समिति की रिपोर्ट घोषित तौर पर गोपनीय है। एके जैन से औपचारिक तौर पर पूंछा गया तो उन्होंने यही कहा कि रिपोर्ट को लेकर वे कोई तथ्य नही बता सकते। रिपोर्ट गोपनीय है। लेकिन सरकार में दाखिल की जा चुकी समिति की रिपोर्ट के कई अंशों की चर्चा करके भाजपा नेताओं ने खुद इस छल का पर्दाफाश कर दिया। मीडिया में भी यह रिपोर्ट लीक की जा चुकी है तांकि इसके माध्यम से एक खास एगिंल उभारा जा सके।

अधिकारियों ने इस रिपोर्ट में यह तथ्य उभारने के लिए बहुत पसीना बहाया है कि संभल के दंगों में हिन्दुओं की ही इकतरफा बलि हुई है। यह ताजा दंगें में केवल मुसलमानों के ही मारे जाने से जुड़े सवालों का जबाव माना जाना चाहिए।

450 पन्नों की यह रिपोर्ट कहती है कि अभी तक के सात दशकों में संभल में 15 दंगे हुए जिनमें 209 हिंदू मारे गये जबकि मुसलमानों में केवल 4 की मौत हुई। खासतौर से 1978 के भीषण दंगे का जिक्र किया जा रहा है जिसमें मुख्यमंत्री के अनुसार 184 हिंदू मारे गये थे।

दूसरे सूत्रों में कोई केवल 9 और कोई अधिकतम 24 मौतों की बात बता रहा है। मुख्यमंत्री ने जो संख्या बतायी उसका स्रोत क्या है यह स्पष्ट नही है। मजे की बात यह है कि 29 और 30 मार्च 1978 को हुए इन दंगों की 169 एफआईआर लिखी गईं थीं लेकिन इनका रिकॉर्ड थाने से गायब है। बहाना यह है कि संभल पहले मुरादाबाद जिले की तहसील थी इसलिए रिकॉर्ड मुरादाबाद में होगा। यह भी बताया गया कि मुरादाबाद जिले के अधिकारियों से इस बारे में सूचना मांगी गई है। लो कर लो योगी की जानकारी पर कोई सवाल।

जिज्ञासा यह उभरती है कि 1978 में प्रदेश में क्या कोई हिंदू विरोधी सरकार थी जो हिंदुओं का नरसंहार में प्रभावी संरक्षण करने से बच निकली थी। 1978 में उत्तर प्रदेश में कई दलों का विलय कर बनी जनता पार्टी की सरकार से रामनरेश यादव मुख्यमंत्री थे जो कि लोकदल घटक के थे। जबकि जनसंघ घटक से कल्याण सिंह, केसरीनाथ त्रिपाठी और हरिश्चंद्र श्रीवास्तव आदि प्रभावशाली नेता कैबिनेट में थे। संभव है कि लोकदल के कोर वोट बैंक में मुसलमानों को भी गिना जाता था। इसलिए मुख्यमंत्री को मुसलमानों के मामले में तुष्टिकरण करना पड़ता हो।

लेकिन हिंदूवादी मंत्रियों ने जिस विचारधारा की रोटी खा रहे हैं उस नमक का हक अदा करने के लिए कुछ किया था या नही। अगर मुख्यमंत्री रामनरेश यादव उनकी चलने नही दे रहे थे तो क्या उन्होंने कोई बगावत की थी। जहां तक जानकारी है कि वे तो बहुत बाद तक रामनरेश यादव हट गये और बनारसी दास मुख्यमंत्री बन गये तब तक सत्ता सुख भोगते रहे। योगी जी ने 1978 के दंगों पर संभल की चर्चा को केंद्रित करते समय क्या यह ध्यान नही कर पाया कि यह तो बूमरेंग हो रहा है। उनके अपने लोग ही धिक्कार के पात्र बन रहे हैं।

योगी मूल रूप से भाजपाई नही हैं और न ही उनका संघ से कोई संबंध रहा है। बहिरागत होने से बहुत स्वाभाविक है कि उनको भाजपा और संघ के प्रति मूल नेताओं जैसा लगाव न हो। इसके अलावा भी और बात है। वे राजनीतिक सफलता के लिए मोदी के उदाहरण को अपने सामने रखते हैं। हालांकि मोदी हमेशा से भाजपाई रहे हैं। उनकी तो शुरूआत ही संघ के प्रचारक के रूप में हुई। लेकिन गुजरात में जब वे मुख्यमंत्री बने और उस दौरान जबर्दस्त दंगे हुए तब भाजपा का चेहरा थे अटल बिहारी वाजपेयी। तथ्य यह है कि अटल बिहारी वाजपेयी यानी भाजपा से उन्हें समर्थन की ताकत मिलना तो दूर अटल जी राजधर्म का विषय छेड़कर उनकी बलि लेने को तत्पर थे।

ऐसा नही हुआ तो इसलिए कि देश भर के उग्र हिंदू कार्यकर्ताओं ने गुजरात दंगों के कारण अपने दिलों में मोदी को पार्टी से ऊपर स्थापित कर लिया था। मोदी ने बहुत ही चतुराई से लोगों के दिमाग में यह बात घुसा दी थी कि भाजपा और संघ के कर्ता-धर्ता कमजोर हैं। निर्णायक बिंदु पर इनका रुख समझौतावादी हो जाता है और कटटरता की झेंप मिटाने के लिए ऐसे मौकों पर उदार छवि में जाकर दुबक जाना इनकी नियति है। इसलिए गुजरात में अगर हिंदुओं के बल का परचम लहराया है तो यह उनका व्यक्तिगत काम है न कि भाजपा और संघ की देन। आज जब वे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर हैं तो अपनी इसी सोच के कारण पार्टी और संघ को बौनेपन का एहसास कराते हुए काम कर रहे हैं। यह सिर्फ मेरा नही हरेक निष्पक्ष विश्लेषक का आंकलन है।

योगी भी इस मामले में मोदी के कायल हैं। उत्तर प्रदेश में भी लोग मानने लगे हैं कि राज्य में हिंदुओं को जो दबदबा हुआ है, किसी की उनके प्रति बुरी निगाह डालने की हिम्मत नही रही है, कोई गलती से गुस्ताखी कर भी बैठा है तो उसे ऐसा सबक सिखाया गया है कि सात पुश्तों तक हिंदुओं से भिड़ना भूल जाये उसका श्रेय भाजपा और संघ को नही हैं। यह योगी के व्यक्तिगत प्रताप का नतीजा है। संभल में 1978 के दंगों की चर्चा पर इसीलिए फोकस किया जा रहा है कि अभी तक जो भाजपा सूरमा रहे हैं जैसे कल्याण सिंह सरीखे आयरन मैन उनमें से कोई भी हिंदू विरोधियों की ऐसी बुरी हालत नही कर पाया जो इस समय है।

मोदी पार्टी से ऊपर अपने कद को स्थापित करने के दांव से ही मुख्यमंत्री से सीधे प्रधानमंत्री के सिंहासन तक का सफर तय कर पाये। कल्याण सिंह ने भी यह रास्ता अख्तियार किया था लेकिन वे कामयाब नही हो पाये। उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़कर केंद्रीय गृहमंत्री के रूप में दिल्ली आने का ऑफर पार्टी ने दिया था। उन्होंने नहीं माना और पार्टी छोड़ दी जिसमें वे गच्चा खा गये। शायद मोदी के लिए भी ऐसा ऑफर देने की तैयारी रही हो पर इसकी नौबत आती इसके पहले ही उन्होंने मंजिल हथिया ली।

योगी भी अपने बारे में मान चुके हैं कि अतिवादी हिंदू मानस के लिए वे लाइफ दैन लार्जर बन चुके हैं। इसलिए हेकड़ी जताने में वे मोदी से पीछे नही दिखते। संभल के घटना चक्र को लेकर जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने उनको लक्ष्य करके यह नसीहत देनी चाही कि हर मस्जिद के नीचे मंदिर खोजने का अभियान चलाकर कोई हिंदुओं का नेता नही बन जायेगा। तो इसी तरह सकुचाने की बजाय योगी ने संभल का दौरा किया और अपनी धार्मिक निशानियों को कब्जे में लेने के मिशन में लगे हिंदू कार्यकर्ताओं में नया जोश भर डाला। स्पष्ट हो चुका है कि सन्यासी मुख्यमंत्री महत्वाकांक्षाओं में खांटी नेताओं से बिल्कुल भी कमतर नही है।

उनके भी इरादे स्पष्ट हैं कि मुख्यमंत्री के बाद उनकी निगाह सीधे प्रधानमंत्री पद पर है। उनको कोई गफलत गच्चे में नही डाल सकती। बड़ी जिम्मेदारी लेकर दिल्ली आ जाने के प्रलोभन पर वे पार्टी के जिम्मेदारों को स्पष्ट कर चुके हैं कि लखनऊ के बाद उनकी तमन्ना उत्तर प्रदेश की सेवा करते-करते गोरखपुर चले जाने की है। उनकी निस्पृहता में कितनी ठंडी आग छुपी है भाजपा हाईकमान इससे अच्छी तरह विदित है। इसलिए उसे सरेंडर की मुद्रा अपनानी पड़ी। योगी केंद्र के साथ जो चेयर रेस खेल रहे हैं उसका अंत कहां जाकर होेगा अभी यह भविष्य के गर्भ में है।

31.8.25

मीडिया : सत्ता का प्रहरी या सत्ता का भोंपू..? पत्रकारिता का पतन औरपुनर्जन्म की आवश्यकता

बंटी भारद्वाज-

भारत की पत्रकारिता कभी समाज का वह आईना थी जिसमें जनता अपनीपीड़ा, अपनी आकांक्षाएँ और अपने संघर्षों को साफ़-साफ़ देख पाती थी।पत्रकार की कलम में वह ताक़त थी कि उसका लिखा हुआ एक वाक्यदिल्ली की सत्ता को हिला सकता था। स्वतंत्रता संग्राम इसका सर्वोत्तमउदाहरण है—जब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने केसरी के माध्यम सेअंग्रेजी हुकूमत को चुनौती दी, महात्मा गांधी ने हरिजन और यंग इंडियाको अपने आंदोलन का हथियार बनाया, पंडित नेहरू, गणेश शंकरविद्यार्थी जैसे क्रांतिकारी लेखकों ने अपने शब्दों से जन-जागरण काबिगुल फूंका। पत्रकारिता तब किसी पेशे से बढ़कर एक "मिशन" थी—राष्ट्र की चेतना को जगाने का मिशन।

लेकिन आज…..

समय का पहिया घूमा, और पत्रकारिता पर व्यवसायिकता का बोझ बढ़तागया। जो कभी समाज और राष्ट्रहित के लिए लड़ती थी, वही अबटीआरपी, विज्ञापन और निजी लाभ के लिए झुकती दिख रही है। आजसमाचार का उद्देश्य सूचना देना कम, सनसनी फैलाना ज़्यादा हो गया है।“फेक न्यूज़” का ट्रेंड सोशल मीडिया से लेकर न्यूज़ चैनलों तक फैल चुकाहै, जिससे पत्रकार की साख पर गंभीर प्रश्नचिह्न लग गया है। जो कललोकतंत्र का चौथा स्तंभ था, वही आज खोखला और संदिग्ध नज़र आनेलगा है।

लोकतंत्र और मीडिया : नींव का स्तंभ

लोकतंत्र एक इमारत है जो विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिकाके तीन मजबूत स्तंभों पर टिकी है। चौथे स्तंभ के रूप में मीडिया उस नींवकी तरह है, जो इस पूरी संरचना को स्थिर रखता है। लेकिन जब यहीस्तंभ भ्रष्टाचार, झूठ और प्रपंच से खोखला हो जाए तो लोकतंत्र की पूरीइमारत हिलने लगती है। मीडिया यदि सत्ताओं, कॉर्पोरेट्स या अपराधजगत के साथ सांठगांठ कर ले तो उसका “वॉचडॉग” वाला रोल खत्म होजाता है। तब वह प्रहरी नहीं, बल्कि सौदागर बन जाता है।

पत्रकारिता : मिशन से पेशा और अब धंधा

 

आज पत्रकारिता के क्षेत्र में दो चेहरे साफ़ दिखाई देते हैं—

 

1. वे पत्रकार, जो आज भी अपने जीवन को मिशन मानकर सच्चाई औरनिष्पक्षता के लिए लड़ रहे हैं। ये लोग कम संसाधनों के बावजूद भ्रष्टाचार, अन्याय और असमानता के खिलाफ अपनी कलम से जंग लड़ रहे हैं।

2. वे तथाकथित पत्रकार, जिन्होंने पत्रकारिता को धंधा बना दिया है।इनकी पहचान चमचमाती गाड़ियों, ‘प्रेस’ लिखे बोर्ड और सत्ता से करीबीसे होती है। ये गाड़ियों पर बिना नंबर प्लेट घुमते हैं, हेलमेट नहीं पहनते, कानून को अपने पैरों तले कुचलते हैं और हर जगह डर का माहौल बनाकरउगाही करते हैं।

 

यही नहीं, कई जगह आपराधिक मानसिकता के लोग पत्रकारिता के नामपर वैधता हासिल कर लेते हैं ताकि अपने अवैध कारोबार को बचा सकें।ये लोग समाज में सच्चे पत्रकारों की छवि को धूमिल कर रहे हैं।

मीडिया और नैतिकता का पतन

पत्रकारिता में पढ़ाई के दौरान "एथिक्स" यानी नैतिकता और निष्पक्षताकी बातें जरूर सिखाई जाती हैं। लेकिन यह पाठ्यक्रम की किताबों तकही सीमित रह गया है। व्यवहारिक जीवन में यह सब वैसा ही है जैसे स्कूलकी नैतिक शिक्षा की किताब—पढ़ ली जाती है, लेकिन अमल में नहींआती।

 

आज खबरों को "स्लैंट" देकर यानी झुकाव दिखाकर परोसा जाता है।हेडलाइन से ही यह बता दिया जाता है कि खबर किस पक्ष में है। कहींबलात्कार की खबर को जाति-धर्म का रंग दिया जाता है, कहीं अपराध कोराजनीतिक चश्मे से देखा जाता है। जबकि पत्रकारिता का असलीदायित्व है—“तथ्य” प्रस्तुत करना, न कि “मंशा” थोपना।

मीडिया : सत्ता का प्रहरी या सत्ता का भोंपू?

आज मीडिया का काम सिर्फ सत्ता की आलोचना तक सीमित मान लियागया है। लेकिन यह सोच अधूरी है। मीडिया का असली काम है—

तथ्यपूर्ण सूचना देना,

विवेचना करना,

और समाज को सही दिशा दिखाना।

 

लेकिन वर्तमान में मीडिया बाइनरी में फंस चुका है—या तो पूरी तरहसरकार के समर्थन में खड़ा होता है, या पूरी तरह विरोध में। संतुलन औरनिष्पक्षता जैसे शब्द धीरे-धीरे खो रहे हैं।

जिम्मेदारी किसकी है?

मीडिया की गिरती साख का सबसे बड़ा कारण स्वयं मीडिया है।

जब पत्रकार अपनी बैठक में तय करते हैं कि “हिंदू बनाम मुस्लिम वालीखबर ज्यादा बिकेगी”, तभी खबर की मौत हो जाती है।

जब टीआरपी के नाम पर समाज के पूर्वाग्रहों को हवा दी जाती है, तभीपत्रकारिता का नैतिक कर्तव्य खत्म हो जाता है।

और जब बड़े पत्रकार खुद स्वीकारते हैं कि उनका काम अब "एंटरटेनमेंट" भर रह गया है, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है।

लोग कहते हैं, “जनता वही देखना चाहती है।” लेकिन सच्चाई यह है किजनता को दिशा दिखाने का दायित्व मीडिया का ही है। जनता दूध पीनेवाली बकरी और 2000 के नोट में चिप जैसे फर्जी किस्सों को देखने नहींआती, बल्कि मीडिया ही यह ठान लेता है कि यही दिखाना है।

समाधान : पत्रकारिता का पुनर्जागरण

 

अगर लोकतंत्र को बचाना है तो पत्रकारिता को अपने मिशन-काल मेंलौटना होगा।

 

1. नैतिकता और निष्पक्षता – पत्रकार को अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं सेऊपर उठकर तथ्यों को रखना होगा।

2. एथिक्स की वापसी – मीडिया हाउस को व्यावसायिक दबाव से ऊपरउठकर पत्रकारिता की मूल आत्मा को प्राथमिकता देनी होगी।

3. सोशल मीडिया का संयम – फेक न्यूज की चुनौती का मुकाबला सच्ची, फैक्ट-चेक्ड और जिम्मेदार रिपोर्टिंग से करना होगा।

4. जन-जवाबदेही – मीडिया को समाज को यह भरोसा दिलाना होगा किवह बिकाऊ नहीं, बल्कि जनता की आवाज़ है।

पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। अगर यह स्तंभ खोखला हुआ तोलोकतंत्र की पूरी इमारत धराशायी हो जाएगी। इसलिए आवश्यकता हैकि पत्रकारिता फिर से अपने मूल स्वरूप में लौटे—जहाँ सत्य सर्वोपरि हो, जहाँ खबर बिके नहीं बल्कि समाज को जगाए, जहाँ पत्रकारिता धंधा नहींबल्कि जन-जागरण का माध्यम बने। यह लेख एक चेतावनी भी है औरएक आह्वान भी—यदि पत्रकारिता ने समय रहते आत्ममंथन नहीं किया तोलोकतंत्र की नींव ही हिल जाएगी। लेकिन यदि पत्रकार कलम को फिर सेसमाजहित और राष्ट्रहित का हथियार बना लें तो न सिर्फ पत्रकारिता कापुनर्जन्म होगा, बल्कि लोकतंत्र भी और मजबूत होगा।

 

बंटी भारद्वाज,पत्रकार

पत्रकारिता के क्षेत्र मे 17 साल का अनुभव.

आरा, बिहार

27.8.25

शाहरुख खान और दीपिका पादुकोण पर राजस्थान में मुकदमा


राजस्थान के वकील का आरोप- डिफेक्टिव वाहनों की ब्रांडिंग करते हैं, दोनों हुंडई कार के ब्रांड एंबेसडर

नई दिल्ली। भरतपुर के एक कार मालिक ने हुंडई की तकनीकी रूप से खराब कार बेचने के आरोप में ब्रांड एंबेसडर शाहरुख खान, दीपिका पादुकोण और एजेंसी के छह अधिकारियों पर मुकदमा दर्ज कराया है. शिकायतकर्ता ने 2022 में कार खरीदी थी, जिसके बाद तकनीकी खराबी सामने आई।

राजस्थान के भरतपुर में एक कार मालिक ने फिल्म स्टार शाहरुख खान, दीपिका पादुकोण और हुंडई कार एजेंसी के छह लोगों के खिलाफ धोखाधड़ी का मामला दर्ज कराया है. मामला तकनीकी रूप से खराब कार बेचने से जुड़ा हुआ है.

थाना मथुरा गेट क्षेत्र के अनिरुद्ध नगर निवासी 50 वर्षीय कीर्ति सिंह ने बताया कि उन्होंने 14 जून 2022 को हरियाणा के सोनीपत स्थित मालवा ऑटो सेल्स प्राइवेट लिमिटेड से हुंडई अल्काजार कार खरीदी थी. लेकिन खरीद के तुरंत बाद ही कार में तकनीकी खराबियां आने लगीं।

यह शिकायत 25 अगस्त को थाना मथुरा गेट में दर्ज कराई गई. मामला बीएनएस 312, 318, 316, 61 और भारतीय दंड संहिता की धारा 420, 406 और 120 बी के तहत दर्ज हुआ..

22.8.25

राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित “ऑपरेशन सिंदूर काव्य प्रतियोगिता” के परिणाम घोषित

  1. देशभर के 28 राज्यों के 3500 कवि इस काव्य प्रतियोगिता से जुड़े

• 361 कविताओं का चयन किया गया 

• ज्यूरी से चुने गए पहले तीन विजेताओं को मिला नकद पुरस्कार

• प्रेरणादायक कविताओं के लिए 50 अन्य कवियों को विशेष पुरस्कार

• दिल्ली के डॉ. ओंकार त्रिपाठी को प्रथम पुरस्कार, कोटा के दिव्यांश पॉटर मासूम को द्वितीय पुरस्कार और दिल्ली की डॉ. अमृता अमृत को तृतीय पुरस्कार

 

दिल्ली। भारतीय सेना के शौर्य और पराक्रम से सुसज्जित ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की शानदार सफलता पर H B Poetry द्वारा आयोजित ‘ऑपरेशन सिंदूर काव्य प्रतियोगिता’ के परिणामों की घोषणा बड़े हर्ष और गर्व के साथ की गई। साहित्य और कला जगत के प्रतिष्ठित लोगों के निर्णायक मंडल ने पहला पुरस्कार दिल्ली के डॉ. ओंकार त्रिपाठी, दूसरा जयपुर के दिव्यांश पॉटर मासूम और तीसरा पुरस्कार दिल्ली की डॉ. अमृता अमृत को दिया। तीनों विजेताओं को नकद पुरस्कार के साथ प्रशस्ति पत्र देने की घोषणा की गई है। यह प्रतियोगिता केवल एक साहित्यिक आयोजन ही नहीं, बल्कि हिंदी साहित्य की विविधता, जीवंतता और सामूहिक रचनाशीलता का उत्सवभी बना।

 

प्रतियोगिता में 28 राज्यों से सहभागिता 

ऑपरेशन सिंदूर काव्य प्रतियोगिता लगभग तीन महीने पहले प्रारंभ हुई। इस प्रतिष्ठित राष्ट्रीय प्रतियोगिता में देशभर के कवियों और साहित्य प्रेमियों ने अत्यंत उत्साह, उमंग और जोशके साथ भाग लिया। इस प्रतियोगिता में भारत के 28 राज्यों से करीब 3500 कवियों ने अपनी रुचि दिखाई। इनमें से 361 कवियों ने सक्रिय रूप से भाग लेकर अपनी रचनात्मकता और साहित्यिक प्रतिभा का प्रदर्शन किया। इतनी बड़ी सहभागिता से साफ है कि कविता आज भी समाज के भावों को अभिव्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है।

साहित्य जगत की प्रतिष्ठित विभूतियों का निर्णायक मंडल

प्रतियोगिता की विश्वसनीयता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए साहित्य और कला जगत की प्रतिष्ठित विभूतियों को निर्णायक मंडल में शामिल किया गया। इनमें प्रख्यात कवि गजेंद्र सिंह सोलंकी, चर्चिच कवि सुदीप भोला और सुप्रसिद्ध गीतकार चरणजीत सिंह चरण शामिल हुए। इन विद्वानों ने निष्पक्ष और पारदर्शी मूल्यांकन प्रक्रिया के बाद विजेताओं का चयन किया।

 

प्रथम तीन विजेता कविओं को नकद पुरस्कार

प्रतियोगिता में ओजपूर्ण, वीर और श्रृंगार रस से परिपूर्ण साहित्यिक रचनाएं शामिल हुईं। इसलिए प्रथम तीन विजेताओं के चयन के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा रही। ज्यूरी ने विजेताओं की घोषणा की। प्रथम पुरस्कार विजेता को ₹25,000 नकद नकद, द्वितीय विजेता को ₹15,000 नकद और तृतीय विजेता को ₹11,000 नगद दिए जाएंगे। 

 

प्रेरणादायी कविताओं के लिए 50 कविओं को विशेष पुरस्कार

इसके अलावा प्रतियोगिता को और अधिक प्रेरणादायक एवं समावेशी स्वरूप देने के लिए 50 प्रतिभागियों को विशेष पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। इन पुरस्कृत कवियों में देश के विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधि शामिल रहे।

ये रहे Top-50 कवि: इन सभी प्रतिभागियों को विशेष पुरस्कार से सम्मानित किया गया।  इनमें गार्गी कौशिक (दिल्ली), राजीव कुमार पांडेय (दिल्ली), मनीष शर्मा (बस्ती, उत्तर प्रदेश),डॉ प्रशान्त जामलिया (सीहोरा, मध्यप्रदेश), उमा विश्वकर्मा (कानपुर,उत्तर प्रदेश), डॉ अशोक सम्राट (दिल्ली), स्नेहलता पांडे (दिल्ली), पुष्पा पोरवाल (फिरोज़ाबाद,उत्तर प्रदेश), सरिता गुप्ता (दिल्ली), राजकुमार 'अर्जुन' (दिल्ली), हरि अग्रवाल (राजस्थान), प्रवेश कुमार (गया, बिहार), शालिनी शर्मा (दिल्ली), अजीत सिंह ग्रामरिक (प्रयागराज, उत्तर प्रदेश), डॉ सुषमा सिंह (कानपुर,उत्तर प्रदेश), शिवकुमार बिलगरामी (दिल्ली), ज्योति (वाराणसी, उत्तर प्रदेश), अनीता जोशी (उत्तराखंड), अंकित शर्मा 'इषुप्रिय' (मध्यप्रदेश), देवेंद्र कुमार पांडेय (उत्तर प्रदेश), मनीष शेंडे (उत्तर प्रदेश) डॉ. अशोक कुमार(उत्तर प्रदेश), सुनीता छाबड़ा (उत्तर प्रदेश), मंजू बरनवाल(पश्चिम बंगाल), रोहित रोज (दिल्ली), गुलाब सिंह (उत्तर प्रदेश), सुधा बसोर सौम्या (दिल्ली), कृतिका सैनी (उत्तर प्रदेश), प्राची प्रवीण कुलकर्णी (महाराष्ट्र), कामना मिश्रा (दिल्ली), अंजना जैन (दिल्ली), डॉ. अनुराग शर्मा (उत्तराखंड), पूजा श्रीवास्तव (पूजा श्रीवास्तव), डॉ. सुरंगमा यादव (उत्तर प्रदेश), मीना रुंगटा (गुजरात), संजय कुमार गिरि (दिल्ली), नरेन्द्र मस्ताना वर्मा (उत्तर प्रदेश), डॉ. जयप्रकाश मिश्र (दिल्ली), धीरज सारस्वत (उत्तर प्रदेश), आयुष यादव (उत्तर प्रदेश), बृजभूषण प्रसाद (बिहार), स्मृति श्रीवास्तव (हरियाणा), आशा झा (छत्तीसगढ़), अतुल जैन सुराणा (मध्य प्रदेश), कपिल कुमार झा (बिहार), निवेदिता शर्मा (दिल्ली), सुशीला शर्मा(उत्तर प्रदेश), हरीश चंद्र सिंह (दिल्ली), शुभ बरनवाल (दिल्ली)और दीपक राजा (दिल्ली) शामिल रहे।

 

हिंदी कविता के ऐसे व्यापक आयोजन भविष्य में भी होंगे- डॉ. हरीश चंद्र बर्णवाल

H B Poetry के मुख्य आयोजक डॉ. हरीश चंद्र बर्णवाल के मुताबिक प्रतियोगिता का उद्देश्य नवोदित और स्थापित कवियों को एक साझा मंच प्रदान करना है। यह पहल ना केवल नई पीढ़ी को हिंदी साहित्य से जोड़ने का माध्यम बनी, बल्कि युवा और नवोदित कवियों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने का भी अवसर बनी। उन्होंने बताया कि ऐसे आयोजन आने वाले वर्षों में और भी बड़े स्तर पर किए जाएंगे, ताकि हिंदी कविता को नई ऊर्जा, नई पहचान और अधिक व्यापक मंच मिल सके।उन्होंने बताया कि जल्द ही इन कविताओं का एक संकलन प्रभात प्रकाशन से लाने की तैयारी हो रही है।

19.8.25

गड़बड़ियां तो साबित हैं, पर जिम्मेदार कौन सिर्फ बीएलओ या शीर्ष कर्ता-धर्ता!

केपी सिंह-

देश की चुनाव प्रणाली कितनी गड़बड़ रही है इसे लेकर एक के बाद एक नये धमाके हो रहे हैं और हर धमाका पहले से अधिक विस्फोटक साबित हो रहा है। राहुल गांधी ने कर्नाटक के बंगलुरू में महादेवपुर विधानसभा क्षेत्र में लगभग 1 लाख फर्जी वोटर पंजीकृत किये जाने का मीडिया के सामने प्रेजेंटेशन देकर पहला धमाका किया था। इसके बाद जबाबी कार्रवाई के बतौर भारतीय जनता पार्टी पहले तो अपने को चुनाव आयोग के वकील के रूप में पेश करने लगी और इसके बाद वह खुद भी मतदाता सूची बनाने में व्यापक धांधली होने की शिकायतों पर उतर आई। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने रायबरेली और वायनाड में हुए लोकसभा चुनाव की मतदाता सूची में 1-1 लाख फर्जी वोटर गिना डाले। उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री और पूर्व पुलिस अधिकारी असीम अरुण ने कन्नौज के लोकसभा चुनाव में भी फर्जी वोटरों की कारामात सुना डाली। उधर तेलंगाना में जगन रेडडी ने अपने राज्य की विधानसभा चुनाव में फर्जी वोटरों के इस्तेमाल से चुनाव परिणाम बदले जाने का कथित रहस्योदघाटन कर डाला। अगर सभी मतदाता सूचियों को बनाने की प्रक्रिया को गड़बड़ बता रहे हैं तो इससे यह सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित होता है कि शुद्ध मतदाता सूचियां बनाने में चुनाव आयोग विफल रहा है। अब मीमांसा यह होनी चाहिए कि ऐसा लापरवाही या जल्दबाजी की वजह से है या इसमें कोई षणयंत्र और बदनियती है।

राजनीतिक दलों के अलावा तटस्थ संगठनों ने भी मतदाता सूचियों की पड़ताल में हाथ बटाया है। उनके निष्कर्षो पर भी गौर कर लिया जाये। द रिपोटर्स कलेक्टिव की 17 अगस्त 2025 की रिपोर्ट में बताया गया है कि कई दक्ष पत्रकारों ने बिहार विधानसभा के तीन विधानसभा क्षेत्रों पिपरा, बगहा और मोतिहारी में अपडेटेड मतदाता सूचियों का सर्वे किया जिसमें 80 हजार से अधिक मतदाताओं को गलत या गैर मौजूद पतों पर पंजीकृत पाया गया। कुछ जगह यह पाया गया कि एक ही घर में सैकड़ों की संख्या में अलग-अलग धर्म और अलग-अलग जाति के मतदाताओं को दर्ज कर लिया गया था। ऐसे एक-दो नही बल्कि 3590 मामले सामने आये। फिर याद दिला दें कि यह सिर्फ तीन निर्वाचन क्षेत्रों की कहानी है। जाहिर है कि पूरे बिहार की हालत क्या होगी।

रिपोटर्स कलेक्टिव की टीम ने संबंधित बीएलओज से इस बारे में बात करने का प्रयास किया। जिन कुछ लोगों ने मुंह खोला उनके अनुसार उनके पास इतना समय नही था कि वे संदेह होते हुए भी ऐसे घरों में सत्यापन के लिए पहुंच सकें। उनके बयान विपक्ष के इस आरोप की तस्दीक करने वाले हैं कि चुनाव आयोग किसी गलत मंशा से सघन पुनरीक्षण के संबंध में दुराग्रह पर आमादा था। अन्यथा उसे भी यह समझ थी कि बिहार में नये विधानसभा चुनाव का समय सिर पर है तो सघन पुनरीक्षण का कार्य सीमित समय में नही हो सकता। अगर इसके लिए हठधर्मिता न छोड़ी गई तो जल्दबाजी में बीएलओज से बड़ी गलतियां होना अवश्यम्भावी है। फिर भी उसने प्रतिपक्ष की आपत्ति पर विवेकपूर्ण ढंग से गौर करने की जरूरत क्यों नही समझी। क्या उसके फैसलें कहीं और से प्रेरित हो रहे थे।

बीएलओ भी इतने मासूम नही हैं। अगर उनके लिए अपने क्षेत्र में घर-घर पहुंचना संभव नही था तो उन चुनिंदा घरों में तो उन्हें जाना ही चाहिए था जिनमें अलग-अलग जाति और अलग-अलग धर्म के अलग-अलग सैकड़ों वोटर वे दर्ज कर रहे थे। उनकी बुद्धि बालक को भी समझ में आ जाने वाली इस गड़बड़ी को नोटिस में क्यों नही ले सकी। फिर यह है कि आखिर एक ही घर में इतनी बड़ी मात्रा में मतदाताओं के फार्म उसे सौंपने वाले लोग कौन थे। क्या वे ऐसे लोग थे जिनके द्वारा थोक में सौंपे गये फार्मों पर संदेह जताने की स्थिति में बूथ लेवल अधिकारियों को अपनी नौकरी पर आ जाने का खतरा दिख रहा था।

इस सबसे तो यह लगता है कि मतदाता सूचियों में जिन गड़बड़ियों को स्थापित किया जा रहा है वे केवल लापरवाही का नतीजा नही हैं। दिखाई तो यह दे रहा है कि आपराधिक मंशा से और सुनियोजित तरीके से मतदाता सूचियों में विकृति का समावेश किया गया है। पहले भी चुनाव में गड़बड़ियां होती रहीं हैं लेकिन उस समय आवाज उठाने वालों में किसी ने कभी आयोग पर उंगली नही उठाई। यह हाल के वर्षों में है जब आयोग के जिम्मेदारों पर आक्षेप लगाये गये और आयोग ने आरोपों को पुख्ता ढंग से नकारने की कोशिश करने की बजाय संदेह के रंगों को और अधिक गाढ़ा करने की मशक्कत दिखाई। उदाहरण के तौर पर अगर बीएलओ और एसडीएम बगैरह चुनाव आयोग की साख पर बटटा लगाते हुए विपक्ष ने पकड़ लिए थे तो आयोग का काम था कि वह पार्टी बनने की बजाय स्वयं हस्तक्षेप करके दोषी अमले को दंडित करने का फरमान सुना डालता। पर आयोग तो ढिठाई पर उतर आया। उसने जांच का कोई कदम उठाने की बजाय संदिग्ध मतदाता सूचियों को सही ठहराने का बोझ अपने ऊपर ले लिया। इण्डिया टुडे की टीम महादेवपुरम में उस कमरे में पहुंच गई जहां दर्जनों मतदाता पंजीकृत थे। लेकिन चुनाव आयोग ने जहमत नही उठाई कि अपने स्तर से किसी अधिकारी को मौके पर भेजता। चुनाव आयोग ने राहुल गांधी से महादेवपुरम विधानसभा क्षेत्र के बारे में शपथ पत्र पर आरोप मांगे लेकिन अनुराग ठाकुर ने रायबरेली और वायनाड में फर्जी मतदाताओं की मौजूदगी का जो खुलासा किया था इस मानक से उनसे भी तो शपथ पत्र पर लिखकर देने की मांग की जानी चाहिए थी। उनसे, असीम अरुण और जगन रेडडी से शपथ पत्र मांगने के नाम पर उसकी जुबान पर ताला क्यों लग गया। मुख्य चुनाव आयुक्त ने सपा द्वारा 17 हजार शपथ पत्रों को उसे सौंपे जाने के बावजूद कार्रवाई न की जाने के आरोप पर कहा कि उन्हें कोई शपथ पत्र नही मिला तो अखिलेश यादव ने पावती की रसीदें सोशल मीडिया पर डाल दीं। अब मुख्य चुनाव आयुक्त इस पर क्यों नही बोल रहें। अगर अखिलेश द्वारा प्रदर्शित की जा रहीं रसीदें फर्जी हैं तो ज्ञानेश कुमार को यह कहना चाहिए। वे अकबकाये से क्यों हैं। इसीलिए चुनाव आयोग संदेह के लपेटे में आ रहा है। कई और विवादित काम ऐसे हुए हैं जिनमें बीएलओ की नही सीधे चुनाव आयोग की भूमिका है। जैसे उसने हरियाणा के एक चुनाव में फंसने पर जब हाईकोर्ट का यह आदेश आया कि मतदान के दिन की वीडियो फुटेज याची को सौंपी जाये तो प्रधानमंत्री के साथ बैठकर उसने यह नियम लागू कर दिया कि कोई भी मतदान के वीडियो फुटेज नही मांग सकता। एकदम साफ है कि किसी चीज को छुपाने के लिए गले के नीचे न उतरने वाला यह नियम लागू कराया गया। इसी तरह उसने मतदाताओं की ऑनलाइन डिजिटल सूची को राहुल गांधी के खुलासे के बाद हटा दिया और स्केन सूची डाल दी जो सर्च नही हो सकती। जब सवाल पूंछा गया तो मुख्य चुनाव आयुक्त ने 2019 के सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश की आड़ ले ली। फिर इस पर भी कायम नही रहा। अब बिहार के हटाये गये 65 लाख मतदाताओं का डिजिटल डाटा लोड कर दिया है। आखिर चुनाव आयोग इतना हड़बड़ाया क्यों है। इसीलिए चुनाव आयोग को पहली बार गड़बड़ियों में संलिप्त करार दिया जा रहा है।

अभी तक की पड़ताल से जो सामने आया है उससे कुछ बातें स्पष्ट हैं। एक तो यह है कि गड़बड़ियां स्थानीय और इक्का-दुक्का नही हैं इसके पीछे व्यापक और संगठित अभियान है। इसमें किसी दल के आधिकारिक कार्यकर्ता शामिल नही हैं। ऐसा लगता है कि कतिपय कारपोरेट कंपनियों ने राजनैतिक कामों के लिए अघोषित तौर पर बनाये गये दस्तों को इस टास्क में इन्वाल्व किया है। लेकिन यह बात हम प्रमाणिक तौर पर नही कह सकते। अगर कोई जांच हो तभी इसकी वास्तविकता स्पष्ट हो सकती है। इस देश में पहले भी बड़ी-बड़ी धांधलियां होती रहीं हैं। लोगों ने एनटी रामाराव को अपनी नाजायज बर्खास्तगी के खिलाफ दिल्ली में उनके बहुमत को साक्षात करने वाले विधायकों की संख्या के साथ भटकते देखा और उस समय की सत्तारूढ़ पार्टी के कार्यकर्ता इसके बावजूद अपनी सरकार को सही करार देने में लगे हुए थे। हरियाणा में जब ऐसी ही धृष्टता के कारण देवीलाल ने गवर्नर जीडी तपासे को राजभवन में ही तमाचा जड़ दिया था तब भी इस स्थिति के लिए उत्तरदायी केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी के कार्यकर्ता अपनी सरकार के कुकृत्य को जायज करार देने में संकोच नही कर रहे थे। आखिर कार्यकर्ताओं को क्यों नही लगता कि पार्टी के प्रति वफादारी एक अच्छा गुण है लेकिन अगर पार्टी के नेता ऐसे फैसले ले रहे हों जो राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और हमारी व्यवस्था की मजबूती के लिए घातक बनने वाले हैं तो हम देश पहले पार्टी बाद में कहने के लिए आगे आ जायें। जिस दिन राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं का जमीर इतना मजबूत हो जायेगा उस दिन किसी पार्टी का नेता निरंकुश होने का साहस नही दिखा पायेगा। 

कंपन में छिपे संकेतों को नज़रअंदाज़ करना होगी बड़ी भूल, आपदा आने से पहले सचेत होना ज़रूरी

डॉ. बृजेश सती

उत्तर हिमालय भूकंप के लिहाज़ से अति संवेदनशील क्षेत्र है। हालांकि लंबे समय से यहां कोई बड़ा भूकंप नहीं आया, लेकिन मध्यम तीव्रता के झटके लगातार दर्ज होते रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि ज़मीन के भीतर हो रहे कंपन दरअसल आने वाले खतरे के संकेत हैं, जिन्हें अनदेखा करना बड़ी भूल होगी। यदि समय रहते मज़बूत आपदा प्रबंधन और भूकंप-रोधी तंत्र विकसित नहीं किया गया तो इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

भारत का भूकंपीय मानचित्र बताता है कि उत्तराखंड जोन-5 में आता है, जो सबसे अधिक जोखिम वाला क्षेत्र है। पिछली सदी में यहां कई बड़े भूकंप दर्ज हुए—उत्तरकाशी (1991, 6.9 तीव्रता), चमोली (1999, 6.6 तीव्रता) और उससे पहले धारचूला (1964, 6.2 तीव्रता)। विशेषज्ञ मानते हैं कि टेक्टोनिक गतिविधियां लगातार जारी हैं और भविष्य में किसी बड़े भूकंप की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

वैज्ञानिकों की राय

वरिष्ठ वैज्ञानिक और पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित डॉ. विजय प्रसाद डिमरी का कहना है कि उपग्रह चित्र और भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) से मिली जानकारी का सही इस्तेमाल कर हिमालयी क्षेत्र की वास्तविक स्थिति को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। उनका मानना है कि बड़े भूकंप के बाद भूस्खलन, नदियों का अवरोधन और कृत्रिम झीलों का निर्माण आम है। ये झीलें मामूली झटकों या भारी वर्षा से टूटकर भारी तबाही मचा सकती हैं। इसके लिए सभी वैज्ञानिकों को एक मंच पर आकर हिमालय अध्ययन केंद्र बनाने की आवश्यकता है।

पर्यावरणविद् जगत सिंह जंगली चेतावनी देते हैं कि सुरंग निर्माण, भारी मशीनों और विस्फोटों से पहाड़ों की स्थिरता प्रभावित हो रही है। इससे धरती के भीतर की गड़बड़ियां और बढ़ेंगी और भविष्य में उच्च तीव्रता के भूकंप का खतरा और गंभीर हो सकता है।

सरकारी प्रयास

केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) जितेंद्र सिंह के अनुसार, आपदा के समय खोज एवं बचाव कार्यों में मदद के लिए ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार (GPR) और आधुनिक तकनीकों की तैनाती की जा रही है। इसरो, एनजीआरआई और अन्य संस्थान मिलकर 3-डी सॉफ्टवेयर मॉडलिंग और भू-स्थानिक डेटा से अधिक सटीक मानचित्र तैयार कर रहे हैं।

दुनिया से सीख

जापान, अमेरिका, चिली, न्यूज़ीलैंड और चीन जैसे देशों ने भूकंप-रोधी भवन निर्माण, त्वरित चेतावनी प्रणाली, आपदा प्रबंधन और आधुनिक सेंसर नेटवर्क पर व्यापक कार्य किया है। भारत को भी इसी दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे।

निष्कर्ष

प्राकृतिक आपदाओं को रोका नहीं जा सकता, लेकिन उनके प्रभाव को कम किया जा सकता है। राहत और पुनर्वास की ठोस योजना, आधुनिक तकनीक का उपयोग और स्थानीय स्तर पर मज़बूत आपदा प्रबंधन तंत्र विकसित करना समय की सबसे बड़ी मांग है। उत्तराखंड ने भले ही 2007 में राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण बनाया, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इसकी प्रभावशीलता अभी भी सवालों के घेरे में है।

18.8.25

अब ट्रेन में तय सीमा से ज्यादा सामान ले जाने पर देना होगा चार्ज

नई दिल्ली। रेलवे ने यात्रियों के लिए नया लगेज सिस्टम लागू किया है, जो हवाई यात्रा की तर्ज पर होगा। नई व्यवस्था के तहत अब तय सीमा से अधिक सामान ले जाने पर यात्रियों को अतिरिक्त शुल्क (Extra Charge) चुकाना पड़ेगा। 


जानकारी के मुताबिक प्रयागराज जंक्शन, कानपुर सेंट्रल, मिर्जापुर, अलीगढ़ और टुंडला समेत कई प्रमुख स्टेशनों पर यह व्यवस्था लागू कर दी गई है। इसके लिए स्टेशन के एंट्री और एग्जिट प्वाइंट पर इलेक्ट्रॉनिक वजन मशीनें लगाई गई हैं।

रेलवे के नियमों के अनुसार—

  • AC-1 यात्री: 70 किलो तक सामान मुफ्त

  • AC-2 यात्री: 50 किलो तक सामान मुफ्त

  • AC-3 और स्लीपर यात्री: 40 किलो तक सामान मुफ्त

  • जनरल डिब्बा यात्री: केवल 35 किलो तक सामान की अनुमति

निर्धारित सीमा से अधिक वजन होने पर यात्रियों को अतिरिक्त शुल्क देना होगा। रेलवे का कहना है कि इस व्यवस्था से यात्रियों की सुविधा बढ़ेगी और कोच में अनावश्यक भीड़भाड़ व सामान का दबाव कम होगा।

17.8.25

टाटा ग्रुप की कंपनी TCS अपने सबसे खराब समय में पहुंच गई है!

 


टाटा ग्रुप अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है. ग्रुप की प्रमुख कंपनी टीसीएस साल 2008 की मंदी के बाद अपने सबसे खराब समय में पहुंच गई है. कंपनी की मार्केट वैल्यू 5.66 लाख करोड़ रुपये कम हो गई है. 

मंदी के साल में कंपनी के शेयर 55 प्रतिशत टूट गए थे. उसके बाद साल 2025 उसके लिए बुरा जा रहा है. इस साल भी कंपनी के शेयर करीब 26 प्रतिशत टूट गए हैं

13.8.25

पत्रकार से सांसद बनीं सागरिका घोष का लिखा ये भाषण पीएम मोदी पंद्रह अगस्त के दिन दे पाएंगे?

आर के जैन-

माननीया सासंद ( राज्य सभा ), श्रीमती सागरिका घोष , भारतीय तृणमूल कांग्रेस द्वारा लिखा गया भाषण जो पीएम मोदी को इस स्वतंत्रता दिवस पर देना चाहिए ।

भाइयों और बहनों, मेरे प्यारे देशवासियों,

आज मैं आपको स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं देता हूँ । जैसा कि आप जानते हैं, 2047 तक विकसित भारत बनाना मेरी सरकार का लक्ष्य है, लेकिन इस दिन, मैं 2025 के भारत की हकीकत पर विस्तार से बात करना चाहता हूँ, न कि 22 साल बाद पूरे होने वाले विकसित भारत के सपने पर।

मुझे पता है कि मैं लगातार इस बारे में बोलता रहा हूं कि दो दशक बाद भारत कैसा दिखेगा, लेकिन आज मुझे लगता है कि मुझे दूर के भविष्य का सपना दिखाने के बजाय, आज के भारत की बात करनी चाहिए।

पिछले 11 सालों के प्रधानमंत्री कार्यकाल में मैंने कई वादे किए। 2014 में मैंने “अच्छे दिन” का वादा किया । कुछ साल बाद “न्यू इंडिया” बनाने की बात की। फिर “अमृत काल” का ज़िक्र किया और आखिर में “विकसित भारत” का विचार आपके सामने रखा। इन सबका मकसद एक अच्छा माहौल बनाना था।

लेकिन मुझे मानना पड़ेगा कि “अच्छे दिन” सच में नहीं आए। हां, सुधार करूं—कुछ लोगों के लिए (जिनमें मेरे कुछ अच्छे दोस्त भी हैं, जिनका नाम नहीं लूंगा) अच्छे दिन ज़रूर आए, लेकिन ज़्यादातर भारतीयों के लिए नहीं।

वर्ल्ड इनइक्वालिटी डाटाबेस की 2024 की एक स्टडी बताती है कि देश की कुल संपत्ति का 40% से ज्यादा हिस्सा सिर्फ 1% भारतीयों के पास है।

भारत भले ही ब्रिटिश राज से आज़ाद हो चुका हो, लेकिन अब यह ‘बिलियनेयर राज’ की गिरफ्त में है। देश की निचली 50% आबादी के पास कुल संपत्ति का सिर्फ 3-4% हिस्सा है।

मार्सेलस इन्वेस्टमेंट मैनेजर्स के संस्थापक और चीफ इन्वेस्टमेंट ऑफिसर, सौरभ मुखर्जी, ने इस साल की शुरुआत में कहा था कि ज़्यादातर भारतीयों की आय ठहरी हुई है। जिस “खपत में उछाल” की बात की जाती है, वह क्रेडिट (उधार) की उपलब्धता की वजह से है, इसलिए यह लंबे समय तक टिकाऊ नहीं है। असमानता पहले से ज्यादा गहरी और स्थायी हो रही है।

ब्लूम वेंचर्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, करीब 1 अरब भारतीय (यानी 90% आबादी) के पास अतिरिक्त सेवाओं पर खर्च करने के लिए पैसा नहीं है। इसका मतलब है कि उनके पास रोज़मर्रा की ज़िंदगी के अलावा कुछ भी खर्च करने लायक पैसा नहीं है।

अमीर भी खुश नहीं दिखते। 2017 से 2022 के बीच, 30,000 से ज्यादा हाई नेटवर्थ इंडिविजुअल (HNIs) ने भारतीय नागरिकता छोड़ दी। 2024 में 4,000 से ज्यादा करोड़पतियों के ऐसा करने की उम्मीद थी। पिछले साल, 2 लाख भारतीयों ने अपनी भारतीय नागरिकता छोड़ दी।

नोटबंदी से स्मार्ट सिटीज़ तक-

मित्रों, 2014 में मैंने मुंबई में सर एच.एन. रिलायंस फाउंडेशन हॉस्पिटल और रिसर्च सेंटर का उद्घाटन किया था। उस समय मैंने कहा था कि भगवान गणेश और महाभारत के नायक कर्ण के रूप में प्लास्टिक सर्जरी और जेनेटिक साइंस के सबूत मिलते हैं।

मैंने कहा था, “हम भगवान गणेश की पूजा करते हैं । ज़रूर उस समय कोई प्लास्टिक सर्जन रहा होगा जिसने इंसान के शरीर पर हाथी का सिर लगाया और प्लास्टिक सर्जरी की शुरुआत की.”।

मैं हमेशा भारत के वैज्ञानिक और अंतरिक्ष मिशनों का श्रेय लेता हूँ । मैं इसरो को बधाई देता हूँ , लेकिन सच कहूं तो मैंने हमेशा वैज्ञानिक सोच के बजाय अंधविश्वास और आस्था को ज्यादा महत्व दिया है।

शायद इसी वजह से मुझे यह समझ में नहीं आता कि पिछले साल मेरे इस बयान पर इतना हंगामा क्यों हुआ कि मुझे भगवान ने भेजा है और मेरा जन्म “गैर–जैविक” है।

मित्रों, 8 नवंबर 2016 की शाम को मैंने अपनी मशहूर नोटबंदी की घोषणा की।

रात 8 बजे, सिर्फ चार घंटे के नोटिस पर, मैंने ऐलान किया कि 500 और 1,000 रुपये के नोट, यानी भारत की 86% नकदी आधी रात से बेकार हो जाएगी। इस बड़े कदम के जरिए मैंने काला धन खत्म करने का वादा किया।

दरअसल, मैंने यह भी कहा था कि अगर मैं 50 दिनों में काला धन खत्म करने में सफल नहीं हुआ, तो मुझे फांसी पर लटका देना चाहिए।

बिलकुल, नकदी तो जैसे वापस लौट आई है। हाल ही में दिल्ली में एक हाई कोर्ट जज के घर से नोटों के ढेर मिलना इसी बात का सबूत है, लेकिन नवंबर 2016 की उस शाम मैं बहक गया था। नोटबंदी पूरी तरह नाकाम रही, सैकड़ों छोटे कारोबार तबाह हो गए। अगर यह सफल होती, तो क्या मेरी सरकार हर 8 नवंबर को ‘नोटबंदी दिवस’ नहीं मनाती? लेकिन नहीं, ऐसा नहीं होता ।

मुझे नारे, चटपटे वाक्य, संक्षिप्त रूप (एक्रोनिम) और छोटी-छोटी लाइनें बहुत पसंद हैं। मैं इन्हें एक अच्छे कलाकार की तरह पेश करता हूँ ,जो दर्शकों को जोश से भर देता है। ये मीडिया के लिए भी बढ़िया हेडलाइन बन जाते हैं। 2021 से मेरी सरकार का विज्ञापन और प्रचार पर खर्च 84% बढ़ गया है। 2024-25 में ही सरकार ने विज्ञापन पर 600 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च कर डाले।

2015 में मैंने स्मार्ट सिटी मिशन की शुरुआत की थी, वादा किया था कि 100 शहरों को बदल देंगे, लेकिन आज इन कथित स्मार्ट सिटीज़ में पानी भरने और पुल गिरने जैसी समस्याएं हैं। गुजरात के वडोदरा में, जिसे स्मार्ट सिटी चुना गया था, पिछले महीने ही एक पुल ढह गया। पटना में, जिसे स्मार्ट सिटी कहा गया, उद्घाटन के सिर्फ दो महीने बाद ही डबल-डेकर फ्लाईओवर टूटकर गिर गया।

देश की राजधानी नई दिल्ली में तो सबसे बुरा जलभराव देखा गया, जिससे साफ हुआ कि चरम मौसम से निपटने की तैयारी ही नहीं है। स्मार्ट सिटीज़ की समस्याओं के अलावा, राजस्थान के एक सरकारी स्कूल की छत भी पिछले महीने गिर गई, जिसमें सात बच्चों की मौत हो गई।

अपने उद्घाटनों और घोषणाओं की होड़ में, मैं रखरखाव और इंफ्रास्ट्रक्चर की नियमित जांच की ज़रूरत पर जोर नहीं देता। मेरे भव्य मीडिया और पीआर इवेंट्स एक तरह के भागने वाले सपनों जैसे हैं। प्रशासनिक तंत्र को रोज़मर्रा की हकीकत से आंख मूंदने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

2016 में मैंने छह साल में किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था, लेकिन एक रिपोर्ट कहती है कि ज्यादातर राज्य यह लक्ष्य हासिल नहीं कर पाए। आमतौर पर मैं इसकी जिम्मेदारी राज्यों पर डाल देता हूँ । लेकिन सूची में कुछ बीजेपी-शासित राज्य भी हैं।

मुझे यह भी कहना होगा कि मुझे विपक्ष-शासित राज्यों को फंड देना पसंद नहीं है। पश्चिम बंगाल को ही अलग-अलग मदों में 1.7 लाख करोड़ रुपये बकाया हैं, जिनमें 7,000 करोड़ रुपये मनरेगा और 8,000 करोड़ रुपये प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत हैं । मैं आमतौर पर उन राज्यों को पसंद नहीं करता जो मुझे वोट नहीं देते। मैं “सहकारी संघवाद” की बात करता हूं, लेकिन अक्सर भेदभाव वाला संघवाद अपनाता हूँ ।

2020 में मेरी सरकार ने किसान संगठनों से बिना बातचीत किए तीन कृषि कानून लागू किए, जिसके खिलाफ किसानों का आंदोलन शुरू हुआ । बीजेपी-शासित सरकारों ने आंदोलनकारी किसानों पर आंसू गैस चलाई और लाठियां बरसाईं । मैंने किसानों में कुछ “आंदोलनजीवी” लोगों की ओर इशारा किया था। आंदोलनजीवी वे पेशेवर प्रदर्शनकारी होते हैं — ‘लेफ्टिस्ट’, ‘अर्बन नक्सल’ और ‘खान मार्केट गैंग’ जैसे — जो मेरे सपनों का भारत बनने से रोकते हैं।

मुझे यह भी मानना पड़ेगा कि किसान आत्महत्याओं का आंकड़ा कम नहीं हो रहा। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, 2022 में 11,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की ।

यहां यह भी कहना होगा कि एनसीआरबी — जो अपराधों का अहम रिकॉर्ड रखता है — अब नियमित रूप से प्रकाशित नहीं हो रहा । राज्यसभा में एक सांसद ने पूछा कि 2023 का एनसीआरबी डेटा — जो 2024 में आना चाहिए था — अभी तक क्यों जारी नहीं हुआ ।

भारत की जनगणना, जो 1871 से हर 10 साल में होती आ रही है और 2021 में होनी थी, वह भी टल गई है, इसलिए कुछ लोग मेरी एनडीए सरकार को ‘नो डेटा अवेलेबल’ सरकार कहते हैं।

नेहरू को दोष दो, मुझे नहीं -

2014 में, मैंने एक और नारा दिया था — “सबका साथ, सबका विकास।” लेकिन, मेरी सरकार और मैं इस नारे पर भी खरे नहीं उतर सके। आज धार्मिक विभाजन और अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न की खबरें अक्सर सुर्खियों में रहती हैं।

हाल ही में, छत्तीसगढ़ में केरल की दो कैथोलिक ननों को गिरफ्तार कर उन पर मानव तस्करी का झूठा आरोप लगाया गया । ये नन लगातार मेरी पार्टी से जुड़े हिंदुत्व संगठनों, जैसे बजरंग दल, के निशाने पर थीं ।

महाराष्ट्र में कुरैशी समाज मीट व्यापारियों पर तथाकथित “गौ रक्षकों” के हमलों के खिलाफ विरोध कर रहा है। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की संपत्तियों को ढहाने के लिए बुलडोज़र के इस्तेमाल का विरोध किया है और कहा है कि इस समुदाय को खास तौर पर निशाना बनाया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इन बुलडोज़र कार्रवाइयों को “अस्वीकार्य” कहा है और इन्हें रोक दिया है।

मैं खुद भी अक्सर अपनी सार्वजनिक भाषणों में धार्मिक नफरत की बातें करता रहा हूँ । 2024 के लोकसभा चुनाव में मैंने कहा कि कांग्रेस महिलाओं के मंगलसूत्र छीनकर उन्हें घुसपैठियों या मुसलमानों को दे देगी ।

2017 के यूपी विधानसभा चुनाव से पहले मैंने ‘श्मशान घाट’ और ‘कब्रिस्तान’ का ज़िक्र किया । 2019 में मैंने कहा कि नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों को उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है । गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए मेरा “हम पांच, हमारे पच्चीस” वाला भाषण मशहूर हुआ था ।

पिछले दशक में, हमने नफरत भरे भाषणों को सामान्य बना दिया है और मुसलमानों व अन्य अल्पसंख्यकों के खिलाफ खुलकर पूर्वाग्रह व्यक्त करना मानो स्वीकार्य हो गया है।

मैंने युवाओं के लिए कई वादे किए और बार-बार कहा कि “युवा शक्ति” भारत को आगे बढ़ाएगी, लेकिन आज छात्र परीक्षा पेपर लीक से परेशान हैं । हाल ही में, अभ्यर्थियों ने एसएससी सेलेक्शन पोस्ट फेज 13 परीक्षा में गड़बड़ियों के खिलाफ नई दिल्ली में विरोध किया. पिछले सात साल में 70 से ज्यादा परीक्षा पेपर लीक हो चुके हैं।

2015 में मैंने एक और नारा दिया — “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” लेकिन 2022 तक, यानी फंड बनने के 10 साल बाद भी, महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए निर्भया फंड का 30% हिस्सा खर्च ही नहीं हुआ था । 2021 में एक संसदीय समिति ने कहा कि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना का 70% से ज्यादा पैसा सिर्फ विज्ञापन पर खर्च किया गया । खासकर बीजेपी-शासित राज्यों में महिलाओं के खिलाफ भयावह अपराध हो रहे हैं ।

भारत की तथाकथित स्वायत्त संस्थाएं आज लगभग पूरी तरह मेरे नेतृत्व वाले राजनीतिक कार्यपालिका के अधीन हो चुकी हैं। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के 95% मामले विपक्षी नेताओं के खिलाफ हैं । 2014 के बाद से, भ्रष्टाचार के मामलों का सामना कर रहे 25 विपक्षी नेताओं में से 23 को बीजेपी में शामिल होने के बाद क्लीन चिट मिल गई । मैंने इस नई तरह की राजनीति शुरू की है — “वॉशिंग मशीन” वाली राजनीति!

लोकतांत्रिक संस्थाओं की बात करें, तो मैं संसद में बहुत कम जाता हूँ । प्रधानमंत्री रहते हुए 11 साल में, मैंने कभी प्रश्नकाल के दौरान न सवाल पूछा, न अपने विभाग से जुड़े सवालों का जवाब दिया ।

इस मानसून सत्र में, जब राज्यसभा में ऑपरेशन सिंदूर पर चर्चा हुई, तो मैं जवाब देने संसद जाने की जहमत तक नहीं उठाई। आखिर क्यों मैं संसद में समय बर्बाद करूं, जब इतने देश मुझे “बेहद अहम” पुरस्कार देने के लिए बुला रहे हैं?

मैंने “अबकी बार ट्रंप सरकार” और “नमस्ते ट्रंप” जैसे नारे दिए ताकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से रिश्ते मजबूत हों, लेकिन अब वही ट्रंप “बेवफा” हो गए । मैं नारे और अंतर्राष्ट्रीय फोटो-ऑप में इतना खो जाता हूं कि मुझे लगता है ये गंभीर कूटनीति और भरोसा बनाने की जगह ले सकते हैं । गाज़ा युद्ध पर इज़रायल के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों से दूरी बनाकर, या रूस के यूक्रेन पर हमले पर चुप रहकर, मैंने दुनिया में भारत की सैद्धांतिक विदेश नीति पर जो भरोसा था, उसे खो दिया । मुझे पहले ही समझ लेना चाहिए था कि पश्चिम देश इस तरह की लेन-देन वाली राजनीति को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करेंगे ।

अंत में, मीडिया से मेरे रिश्तों पर एक बात। मेरे नाम एक अनोखा रिकॉर्ड है — पिछले 11 साल में मैंने एक भी खुली प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की । मैं ऐसा करने वाला एकमात्र भारतीय प्रधानमंत्री हूँ। .

जैसा कि मैं कहता हूं: “अपनी दोस्ती बनी रहे.”।

अब सवाल उठता है: पिछले 11 साल में मैं अपने सारे वादे, संकल्प, नारे, पीआर घोषणाएं, योजनाएं, प्रचारित कार्यक्रम और भव्य स्कीमें क्यों पूरी नहीं कर पाया?

जवाब आसान है । एक ही शख्स इसके लिए जिम्मेदार है — पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू । पिछले 11 साल से, नेहरू लगातार मेरी कोशिशों को रोकते रहे हैं और मेरी कई योजनाओं और अभियानों को नाकाम बनाते रहे हैं । नेहरू ही वजह हैं कि मेरे ज्यादातर काम नतीजे तक नहीं पहुंचते , तो मेरी नाकामी के लिए मुझे मत कोसिए । कृपया नेहरू को दोष दीजिए।

जय हिंद-जय भारत ।

( सागरिका घोष )

लेखिका अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की सांसद (राज्यसभा) है।

28.7.25

हेलीकॉप्टर की कीमत और विज्ञापनों की बौछार

सुखवीर सिंह- 

कुछ दिन पहले मैंने Google पर सर्च किया कि “हेलीकॉप्टर की कीमत कितनी होती है?"

तब से मेरी ज़िंदगी तबाह हो गई। 

"चाहे  कहीं भी जाऊँ, YouTube, Facebook, Instagram हर जगह से मुझ पर लग्जरी विज्ञापनों की बौछार होना शुरू हो गई, जैसे कि -

- बुर्ज खलीफा में अपनी छुट्टियाँ बिताएँ। 

- अपनी पत्नी को हीरे का हार उपहार में दें। 

- मिस्र के पिरामिड आपका इंतज़ार कर रहे हैं। 

- अभी iPhone 17 की प्री-बुकिंग करें। 

- कनाडा में अपने सपनों का घर खरीदें। 

- हमारे पास आपके लिए चाँद पर 

- 5 एकड़ की बेहतरीन ज़मीन है।

फिर इस झंझट से बाहर निकलने के लिए कल रात मैंने सर्च किया, - “फटे हुए जूते कैसे ठीक करें?

बस, समस्या हल हो गई। अब विज्ञापन बदल के आना शुरू हो गए। 

आज सुबह से ही Facebook, YouTube और Instagram पर मुझे इस तरह के विज्ञापन दिखाए जा रहे हैं। 

- सिर्फ़ ₹370 में 2 जोड़ी सैंडल खरीदें और ₹20 कैशबैक पाएँ। 

- वाशिंग पाउडर फलाना सिर्फ ₹100 में, 

- 2 किलो के साथ में मग्गा फ्री। 

- आधा किलो सोन पापड़ी पर 

- पूरे 100 ग्राम नमकीन मुफ्त। 

- फटे जूते सस्ते दामों पर रिपेयर  करायें

 अब जिंदगी फिर से आसान लग रही है....

23.7.25

किराए का मकान लेकर फर्जी दूतावास चला रहा था ये फ्रॉडियल- UPSTF ने पकड़ा

 


Ghaziabad... गाजियाबाद में चल रहे अवैध दूतावास का भंडाफोड़ - नाम है हर्षवर्धन जैन

हर्षवर्धन केबी 35 कवि नगर में  किराए का मकान लेकर अवैध रूप से वेस्ट आर्कटिक दूतावास चला रहा था तथा अपने आप को West Arctica, Saborga, Poulvia, Lodonia आदि देशों का कॉन्सुल/एम्बेसडर बताता है और कई डिप्लोमेटिक नम्बर प्लेट लगी गाड़ियों से चलता है. लोगों को प्रभाव में लेने के लिए प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और कई अन्य गणमान्य लोंगों के साथ अपनी मॉर्फ़ की हुई फोटो का भी प्रयोग करता है. 

इसका मुख्य काम कंपनियों और प्राइवेट व्यक्तियों को बाहर के देशों में काम दिलाने के नाम पर दलाली करना तथा शेल कंपनियों के माध्यम से हवाला   रैकेट चलाना है. 

हर्षवर्धन के पूर्व में चंद्रास्वामी और अदनान खगोशी (इंटरनेशनल आर्म्स डीलर) से भी संपर्क में होना ज्ञात हुआ है। उल्लेखनीय है की 2011 में  हर्षवर्धन से अवैध सेटेलाइट फ़ोन भी बरामद हुआ था...

17.7.25

मैं आजाद कलम का सिपाही हूं...!

आज, जब ’पत्रकार’ और ’प्रोपगैंडा’ के बीच की रेखा धुंधली होती जा रही है, तब यह और भी ज़रूरी हो गया है कि हम कलम को वैचारिक ईमानदारी, संवैधानिक निष्ठा और नैतिक साहस से भरें। मेरी यही आकांक्षा है कि मैं आज़ाद कलम का वह सिपाही बन सकूं, जो सत्ता से नहीं, सत्य से संचालित हो. पत्रकार एक ऐसा शब्द है जिसकी रक्षा करना हर कलम के जादूगर का फर्ज है. और यही सोच ले बहुत से कलम के हुनरदारों ने पत्रकारिता जगत में धूम-धड़ाके से प्रवेश किया. परन्तु समाज ने उन्हें उनका फर्ज भुलाकर अपनी मुट्ठी में कैद करने की कोशिश शुरू कर दी। पत्रकार को मुट्ठी में कैद करने की चालें देश के गद्दारों, भ्रष्टाचारियों, अवैध धंधे करने वालों ने करके पत्रकारिता की गरिमा को ठेस पहुंचाकर कलम के हुनर को दबाने की कोशिश की. और हरदम उनका प्रयास और तेज है। जबकि सभी स्वार्थों का त्यागकर पत्रकारिता जगत में बेखौफ कलम चलाकर भ्रष्टाचारियों के चेहरे बेनकाब करने चाहिए... 

सुरेश गांधी- 

पत्रकारिता को अक्सर सत्ता का चौथा स्तंभ कहा जाता है, लेकिन जब यह स्तंभ अपने मूल स्वरूप से डगमगाने लगे, तो समाज का संतुलन भी टूटने लगता है। आज जब सूचनाओं की बाढ़ है, मगर सच्चाई की प्यास बुझती नहीं, तब पत्रकार की भूमिका केवल समाचार संकलक की नहीं, बल्कि लोकस्वर के संवाहक की होती है। मतलब साफ है पत्रकारिता केवल समाचारों का संकलन या प्रसारण भर नहीं है। यह समाज की आत्मा से संवाद है। यह लोकजीवन की धड़कनों को सुनने, समझने और उसे शब्द देने की तपस्वी प्रक्रिया है। इसी भावना से मैं अपनी पत्रकारिता को परिभाषित करता हूं. यह किसी को डराने, धमकाने या ब्लैकमेल करने का औजार नहीं, बल्कि अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति की आवाज़ को मंच देने का माध्यम है।

मैं जब पत्रकारिता के क्षेत्र में आया, तो मैंने इसे न तो व्यवसाय की दृष्टि से देखा, न ही सत्ता या प्रसिद्धि की सीढ़ी के रूप में। मैंने इसे अपने विचारधारा और संवैधानिक चेतना के विस्तार के रूप में अपनाया, एक ऐसा माध्यम, जिससे मैं समाज के अंतिम व्यक्ति की आवाज़ बन सकूं। मेरी कलम न सत्ता से संचालित है, न किसी संस्था से निर्देशित। यह कलम उस विचारधारा की अंतिम स्याही है, जो सामाजिक न्याय, संवैधानिक अधिकार और मानवीय गरिमा के लिए बहती है। मैं पत्रकारिता को सिर्फ एक पेशा नहीं मानता, यह मेरे लिए एक नैतिक दायित्व है. एक ऐसी प्रक्रिया, जिसके माध्यम से लोकतंत्र की आत्मा जीवंत रह सके। आज जब मीडिया पर बाज़ार, विज्ञापन और राजनीतिक दबावों का शिकंजा कसता जा रहा है, तब पत्रकार का विवेक, उसकी प्रतिबद्धता और उसका साहस सबसे बड़ी पूंजी बन जाती है। और मैं स्वयं को इसी चुनौती से जूझता पत्रकार मानता हूं, जो न बिकने को तैयार है, न झुकने को।

मेरी कलम न तो किसी दल की भोंपू है, न ही किसी कारपोरेट एजेंडे का औजार। मेरी पत्रकारिता का उद्देश्य किसी को डराना, धमकाना या लज्जित करना नहीं है। यह क़लम किसी को गिराने के लिए नहीं, बल्कि गिराए गए को उठाने के लिए उठती है। मैं यह मानता हूं कि पत्रकारिता का धर्म है, बोलना वहां, जहां चुप्पी सहमति बन जाए और लिखना वहां, जहां सच दबा दिया जाए। जब कोई किसान आत्महत्या करता है, कोई मज़दूर विस्थापित होता है, कोई दलित न्याय से वंचित रह जाता है, कोई महिला उत्पीड़न की शिकार होती है या कोई आदिवासी जंगल से बेदखल कर दिया जाता है, या कोई प्रताड़ना से ग्रसित बुनकर तब मुख्यधारा की मीडिया अक्सर खामोश हो जाती है। मेरी लेखनी उन्हीं आवाज़ों की साझेदार बनना चाहती है, जो ’टीआरपी’ की दुनिया में गुम हो जाती हैं। मेरी कलम विचारधारा की स्याही से भीगती है, लेकिन किसी ’वाद’ की दास नहीं है। यह कलम लोकतंत्र के मूल्यों, संविधान की आत्मा और जन-जन के हक की पक्षधर है।

मैं चाहता हूं कि मेरी पत्रकारिता सामाजिक न्याय, समानता और मानव गरिमा की पुनर्स्थापना का औजार बने। यह राह आसान नहीं है, यह राह अकेलेपन की भी है, आलोचना की भी, और संघर्ष की भी। लेकिन अगर यह राह किसी पीड़ित को न्याय दिला सके, किसी निर्बल को बल दे सके, तो यही मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। मैं उस राह का राही हूं, जो लोकप्रियता की होड़ से परे है, जो सत्ता की प्रशंसा से दूर है, लेकिन जो जन-आवाज़ के सबसे निकट है। मैं उस स्वराज की कल्पना में विश्वास करता हूं, जिसमें हर व्यक्ति को अपने विचार रखने, विरोध दर्ज करने और न्याय मांगने का अधिकार हो। मेरी पत्रकारिता उसी स्वराज की परिकल्पना का विस्तार है, जहां लेखनी एक आंदोलन है, और पत्रकार एक जनपक्षधर सैनिक। जब कलम बिकने लगती है, तो सत्य गिरवी हो जाता है। और जब कलम चुप हो जाती है, तब अन्याय बोलने लगता है। मैं नहीं चाहता कि मेरी कलम किसी के लिए हथियार बने, मैं चाहता हूं कि यह समाज के लिए दीपशिखा बने, जो अंधेरे में दिशा दिखाए।

मैं चाहता हूं कि मेरी पत्रकारिता से निकली हर पंक्ति किसी मूक चीख को स्वर दे, किसी पीड़ित की पीड़ा को मंच मिले। मैं चाहता हूं कि जब सत्ता मद में चूर हो जाए, तब मेरी कलम उसका आईना बने। जब व्यवस्था विकृत हो जाए, तब मेरी लेखनी उसका विवेक बने। और जब समाज थक जाए, टूट जाए, तब मेरी आवाज़ उसे फिर से उठ खड़ा होने की हिम्मत दे। मुझे गर्व हो, यदि आने वाली पीढ़ियां कहें कि “यह पत्रकार सबका था, लेकिन किसी का गुलाम नहीं था।” मैं आज़ाद कलम का वह सिपाही बनना चाहता हूं जो सबका है, लेकिन किसी का नहीं। जिसका कोई निजी स्वार्थ नहीं, पर जिसकी निष्ठा जनहित में अडिग है। पत्रकारिता का यह आदर्श भले ही कठिन हो, लेकिन यही उसका असली रूप है। इस कलम को बिकने नहीं दूंगा। इसे झुकने नहीं दूंगा। इसे उस हर व्यक्ति के लिए चलने दूंगा, जिसकी आवाज़ कोई नहीं सुनता।

खासतौर से तब जब पत्रकारिता एक व्यवसाय का रूप ले चुकी है. इस समय भारत में देशभक्ति से पूर्ण पत्रकारिता की जरूरत है जो आजादी से पहले हुआ करती थी। आज सस्ती टीआरपी की होड़ लगी है। समाज में व्याप्त बुराइयां इस पवित्र पेशे को भी दागदार बना चुकी हैं। जब दर्पण ही दागदार हो गया तो वह भला कैसे बता सकेगा समाज की सच्ची तस्वीर। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। जब न्यायपालिका को छोड़कर लोकतंत्र के बाकी स्तंभ भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की समस्याओं से जूझ रहे हैं, तो ऐसे समय पत्रकारिता की सामाजिक जिम्मेदारी कहीं अधिक बढ़ जाती है। लेकिन दुखद बात तो यह है कि अब तो समाचारों की विश्वसनीयता पर भी संदेह होने लगा है। पत्रकारों का यह दायित्व है कि वे लोगों को सही खबरों से अवगत कराएं और उनमें लोकतंत्र की आस्था को मजबूत करें।

इससे बड़ी बिडम्बना और क्या हो सकती है जब अखबारों के मालिक ही राजनीतिक दलों से डील कर पैसे लेकर उनके पक्ष में समाचार छापते हैं, तब फिर मातहत अधिकारी और कर्मी भी तो यही करेंगे। गंगा गंगोत्री से ही मैली हो रही है। सफाई की शुरुआत भी वहीं से करनी होगी लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? लोग पत्रकार क्यों बनते हैं-जन सेवा के लिए या फिर जैसे-तैसे पैसा कमाने के लिए। माना अब पत्रकारिता अब मिशन नहीं रहा, लेकिन इसको मिशन बनाया जा सकता है। तेज सफर में पत्रकारों को पत्रकारिता जगत के लिए शहीद भी होना पड़ा परन्तु इन कलम के रखवालों ने अपनी कलम की रोशनी को कम नहीं होने दिया। 

कांवड़ियों के शिविर में यात्री बनकर चोरी करने वाले पांच बेनकाब

 

मुजफ्फरनगर- पुलिस के अनुसार, ये लोग कांवड़ियों का भेष धारण कर शिविरों में रुकते थे। वहां आराम कर रहे श्रद्धालुओं के मोबाइल, पर्स और अन्य कीमती सामान चुराते थे। 

पुलिस को लगातार इन संदिग्धों की गतिविधियों की सूचना मिल रही थी। 14 जुलाई 2025 को विशेष अभियान के दौरान पुलिस ने इन्हें पकड़ा। 

पूछताछ में आरोपी अपनी उपस्थिति का कोई ठोस कारण नहीं बता पाए। गिरफ्तार आरोपियों में सुहैल उर्फ चौकस उर्फ शेरखान (22), आसिफ (20), अफसार (24), शाहिद (20) और आबिद शामिल हैं।

पुलिस ने पत्रकार वार्ता में इस मामले का खुलासा किया। 

सभी आरोपियों माधरजात हुल्लाह की पैदावार हरामखोरो को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया है। सावधान और सतर्क रहे ये जात अब अपनी औकात पर आ गई है....

उत्तर प्रदेश पुलिस कांवड़ यात्रा को सकुशल संपन्न कराने के लिए पूरी तरह सतर्क है साथ-साथ आप सभी का सहयोग भी जरुरी है,,, अपना कीमती सामान संभालकर रखें.... 

14.7.25

सच्चाई दिखाने पर अजीत अंजुम के खिलाफ बिहार में मुकदमा


श्याम मीरा सिंह- 

बिहार में मतदाता सूची के लिए की जा रही धाँधली को अपनी ग्राउंड रिपोर्ट से दिखाने वाले पत्रकार अजीत अंजुम जी पर बिहार में FIR कर दी गई है। हम इस FIR की निंदा करते हैं। 

किसी भी पत्रकार को क़ानून का इस्तेमाल कर सताया नहीं जाना चाहिए। पत्रकार अपना काम करता है आप अपना करिए। 

उन्हें शायद इस बात का ज़रा भी पता नहीं है कि जिस आदमी से वे लड़ रहे हैं वो किस धातु का बना है। पत्रकार ajit anjum, पत्रकार तो अच्छे हैं हीं। वे इंसान भी सच्चे हैं। और एक सच्चे इंसान की ताक़त किसी भी सरकार से ज़्यादा है। 

अजीत अंजुम जी से फुल सॉलिडेरिटी के साथ, उन्हें सलाम। 



9.7.25

नाई की दुकान चलाने वाली हैदराबाद की इस BBA छात्रा से मिलिए

कविश अजीज- 

ये बिंदु प्रिया हैं। हैदराबाद की रहने वाली, BBA किया है।  इनके पिता की नाई की दुकान है। 


2015 में इनके पिता राजेश को ब्रेन स्ट्रोक हुआ, बिंदु उस समय सिर्फ 12 साल की थी। इसी दुकान से घर का खर्च होता था।

बस फिर क्या था बिंदु ने पिता की दुकान संभाल लिया।

लोगों ने कभी किसी लड़की को पुरुषों के बाल काटते, दाढ़ी बनाते नहीं देखा था। ऐसे में  मोहल्ले वालों के विरोध का सामना करना पड़ा। 

कई बार दुकान पर आने वाले ग्राहक भी ऐसा कमेंट कर देते, जिसे उचित नहीं कहा जा सकता। लेकिन बिंदु पूरी लगन से अपना काम करती हैं।


5.7.25

बरेली से रामपुर चली 83.86 लाख रुपये की खाद दो ट्रकों समेत लापता

बरेली- रामपुर के बिलासपुर इलाके में स्थित शानू खाद भंडार सीमेंट स्टोर पर बरेली से भेजा गया लाखों रुपये का खाद ट्रक समेत लापता हो गया। मामला प्रकाश में तब आया जब पंजाब के होशियारपुर निवासी कुलविंदर सिंह (इटरनिटी फॉरवर्डस प्रा. लि. के मैनेजर) ने दो ट्रकों की खाद के रहस्यमय तरीके से लापता होने की रिपोर्ट दर्ज कराई। 

कंपनी का कहना है कि परसाखेड़ा स्थित फ्रंटियर एग्रोटेक प्राइवेट लिमिटेड से 13 और 16 मई को कुल 77 हजार किलो खाद, जिसकी कीमत करीब 83.86 लाख रुपये है, चार ट्रकों के जरिए शानू खाद भंडार को भेजी गई थी। माल की जिम्मेदारी जीआर ट्रांसपोर्ट के अमित मिश्रा और जयगौरी फारवर्डिंग कमीशन एजेंसी के राजीव अग्रवाल को दी गई थी। 

रिसीविंग लेकर दो ट्रकों की डिलीवरी से इनकार

कुलविंदर सिंह के मुताबिक, चारों ट्रकों के ड्राइवरों ने निर्धारित पते पर माल उतारने के बाद उसकी रिसीविंग भी भेज दी थी। लेकिन 21 मई को शानू खाद भंडार की ओर से प्राप्त एक पत्र और ईमेल में कहा गया- उन्हें सिर्फ दो ट्रक खाद ही मिला है। बाकी दोनों ट्रकों की डिलीवरी को उन्होंने पूरी तरह से नकार दिया है। 

स्टोर संचालक का दावा है कि जिन दो ट्रकों की बात की जा रही है, उनके रिसीविंग पर न तो किसी कर्मचारी के हस्ताक्षर हैं और न ही स्टोर ने वह माल स्वीकार किया है। ऐसे में कंपनी और ट्रांसपोर्टरों के बीच टकराव की स्थिति बन गई है।